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जिस शाम को मैं मधुकर दिघे से मिला उससे एक दिन पहले बुलावा आया था। पता चला कि मधुकर दिघे पत्रकारों से बातचीत करेंगे। लगभग ढाई साल पहले उनसे मुलाकात हुई थी तब वे अपने साथ एक कार्यक्रम के लिए जार्ज फर्नाण्डीज को लेकर आये थे। मधुकर दिघे को लेकर इधर कई दिनों से मैं सोच रहा था कि अब वे कहां और किस हाल में हैं। एक समाजवादी नेता से पूछा तो उन्होंने बताया कि बीमार हैं। लेकिन जब मैं शाम उनसे मिला तो उनकी आवाज में खनक बनी हुई थी। हां चेहरे पर ढलती उम्र का अहसास था। जब वे बोलना शुरू किये तब तो उनका दर्द छलक उठा। मधुकर दिघे ने बातचीत की शुरुआत में ही यह कहना शुरू किया कि यह मेरी आखिरी मुलाकात है। शायद ही पिफर मुलाकात हो। यह कहते हुये उनका गला रुंध गया और आंख्ा डबडबा गयी। मैं अपलक पूर्वांचल के इस गौरव को देख रहा था। जीवन में संकरीली पथरीली पगडण्डियों से होकर सत्ता के शिखर तक पहुंचे इस वाकपटु राजनेता की चुप्पी को भी मैं महसूस कर रहा था। एक बारगी लगा कि ढलती हुई उम्र और बदले हुये हालात ने एक विद्रोही नेता को खामोश कर दिया है। मधुकर दिघे 1920 में धार में पैदा हुये। मध्यप्रदेश में जन्मे इस मराठी नेता ने कटनी में नौकरी के दौरान एक अंग्रेज अफसर का थप्पड खाने के बाद अगले दिन जब अंग्रेज का थप्पड जडकर हिसाब किताब पूरा कर दिया तो उन्हें कटनी छोडना पडा। इसके पहले विद्रोही स्वभाव के चलते उन्होंने कई नौकरी और शहर छोडा था। पर इसके पहले वे अपने किसी भाई और ताऊ के साथ रहे लेकिन अबकी बार उन्हें अकेले बोरिया बिस्तर लेकर भागना पडा। 1943 की गर्मियों में वे भागकर इलाहाबाद आये। यहां आकर लोहिया और जयप्रकाश के सम्पर्क में आये। कभी कानपुर कभी देहरादून तो कभी कहीं। इलाहाबाद में नौकरी करते हुये स्वेदश और आजादी के प्रति पूरी तरह समर्पित। एक दिन देहरादून के कैम्प में जयप्रकाश नारायण ने कहा जाओ गोरखपुर जाकर काम करो। मधुकर दिघे 1946-47 में गोरखपुर आये तो सोशलिस्ट पार्टी के दफ़तर में एक चारपायी पर अपनी दुनिया बसा लिये। दफ़तर में ही भोजन मिलता और घूम घूम कर रेलवे में संगठन बनाते। आजादी मिलने के बाद मधुकर दिघे ने यहां स्वतंत्र रूप से संघर्ष शुरू किया। सोशलिस्ट पार्टी ने उन्हें अपने प्रमुख नेताओं में शुमार किया। मधुकर मजदूरों के लिए समर्पित हो गये। उनके संघर्ष की गूंज दूर दूर तक पहुचने लगी।उन्हें मुण्डेरा और पिपराइच की जनता ने तीन बार विधायक बनाया। 1974 में वे विधानसभा में सचेतक बने। इसके पहले वे आपात काल में जेल गये थे। हालांकि दो तीन बार पेरोल पर रिहा हुये। इसके बाद उन्होंने जनता पार्टी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उनके कहने पर कई लोगों को टिकट दिया गया। मधुकर दिघे विधायक बने और मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में उनका नाम शामिल हो गया। उन्हें मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन रामनेरश यादव की सरकार में वित्त मंत्री बनाये गये। उन्हीं दिनों सत्यप्रकाश मालवीय भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। रामनरेश यादव को मुख्यमंत्री बनवाने में राजनारायण की प्रमुख भूमिका थी। सत्यप्रकाश मालवीय लगातार अडचन खडी कर रहे थे। एक साल बाद ही रामनरेश यादव हटा दिये गये। तब भी मुख्यमंत्री बनाने के लिए मधुकर दिघे का नाम चला। मधुकर दिघे के अपने लोग ही राह के रोडा बन गये। तब बस इतना ही हुआ कि नये मुख्यमंत्री बनारसी दास के साथ मधुकर दिघे को भी वित्त मंत्री पद की शपथ दिलायी गयी। मधुकर दिघे ने जब तक जनता पार्टी की सरकार रही काफी बेहतर ढंग से कार्य किया। बाद के दिनों में जब जनता दल का गठन हुआ तब पिफर मधुकर की याद आयी। मधुकर को एक दिन मुलायम सिंह यादव ने बुलवाया और पूरे प्रदेश के चुनाव संचालन की जिम्मेदारी सौंप दी। मधुकर दिघे ने बेहतर ढंग से वीपी सिंह, मुलायम सिंह यादव, चन्द्रशेखर, राजबब्बर आदि प्रमुख लोगों के कार्यक्रम लगाये और पोस्टर बैनर बांटने में भी प्रत्याशियों से समन्वय स्थापित किया। उन्होंने चुनाव परिणाम आने से पहले ही पत्रकार वार्ता में यह घोषणा कर दी कि मुलायम सिंह यादव ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री हुये तो सत्ता के गलियारे में दिघे की चलने लगी। हर ओर उनकी चर्चा थी। इस बात को तब बल मिला जब वित्त मंत्री रहते हुये मधुकर के सचिव आइएसए मिश्रा को मुख्यमंत्री का प्रमुख सचिव बना दिया गया। पर यह हाथी के दांत थे। मधुकर ने उस समय मुख्यमंत्री की सिफारिश पर राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाने वाले विधान परिषद सदस्य के लिए अपने समर्थकों द्वारा मुलायम सिंह के यहां अपनी अर्जी डलवायी। मुलायम सिंह ने जब सूची जारी की तो उसमें दिघे का नाम नहीं था। दिघे आहत हुये लेकिन चुप्पी साधे रहे। इस दौरान मधुकर को बताया गया कि मुलायम सिंह यादव यह चाहते नहीं कि कोई कदद़ावर नेता उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो। इस दौरान मधुकर ने अपने समायोजन के कई प्रयास किये लेकिन कोई नतीजा हाथ नहीं लगा। इस बीच अचानक यह बात आयी कि दिघे को राज्यपाल बनाया जा रहा है। एक दिन उन्हें मेघालय का राज्यपाल बनने की सूचना मिली। उन्होंने अपने परिजनों के साथ जाकर शिलांग के राज भवन में शपथ ली। आदिवासियों के बीच दिघे को अत्यंत लोकप्रियता मिली। वे अरुणांचल प्रदेश के भी राज्यपाल बनाये गये। कार्यकाल पूरा करके जब मधुकर दिघे वापस लौटे तो मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी संघर्ष कर रही थी। मधुकर दिघे को पार्टी का प्रवक्ता बनाया गया। मधुकर कहते हैं कि उन्हीं दिनों राजनीति में अमर सिंह का उभार हुआ। अमर के प्रेम में मुलायम ने मधुकर को महत्व देना कम कर दिया तो एक दिन मधुकर ने भी मुलायम से किनारा कस लिया। हालांकि इस दरम्यां जनेश्वर मिश्रा उन दोनों के बीच सेतु बने रहे। दुखी मधुकर ने किताबें लिखनी शुरु की। इससे उनके मन की भडास निकली। इसके पहले भी वे किताबे लिख चुके थे। पूर्वांचल की ओर और मेरी लोक यात्रा ये दो किताबें तो प्रकाशित भी हुई। पूर्वांचल की ओर किताब का लोकार्पण तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने किया। इसके बाद मधुकर नोयडा में अपने पुत्र के पास रहने लगे। उन्होंने कुछ स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर अलग पूर्वांचल राज्य की मांग भी उठायी। पर स्वास्थ्य और कुछ कारणों से उन्होंने चुप्पी साध ली। उस दिन जब हमारी मुलाकात हुई तो दिघे साहब पूरी रौ में आ गये। कहने लगे कि मुलायम सिंह यादव ने अमर की लालच में लोहिया और जेपी की सपा को खराब कर दिया। उन्होंने मुलायम सिंह यादव पर समाजवाद की राह से भटक जाने का आरोप लगाया। अपने बारे में कहने लगे कि मैं तो यहां आया तो न मेरी जाति थी, न परिवार था और न ही मेरा क्षेत्र। मैं तो एक मराठी था लेकिन यहां की जनता ने मुझे प्यार दिया। हालांकि इसकी वजह वे अपने ढंग से बताते हैं। मधुकर कहते हैं कि मैं तो खांटी पूर्वांचल का हो गया इसलिए यहां के लोगों ने मुझे अपने दिल में जगह दी। उन्होंने मुम्बई में राज ठाकरे द्वारा सताये जा रहे लोगों को सलाह दी कि वे मुम्बईकर बने रहे तो उनका कोई नुकसान नहीं होगा। उन्होंने यह भी बताया कि भाजपा अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे उनके मौसेरे भाई थे और उन्हें संघ में ले जाना चाहते थे लेकिन मैं समाजवाद की राह से कभी डिगा नहीं। मधुकर का कहना है कि उनकी आखिरी सांस भी समाजवाद की छांव तले निकलेगी।
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