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चालीस के दसक में कामरेड वासुपुण्यया के नेतृत्व में कम्युनिस्टो ने अलग तेलंगाना (तेलुगु भाषियों की भूमि) के मांग की शुरुवात की थी| उस समय इस आंदोलन का उद्देश्य भूमिहीनों को भूपति बनाना था| छः वर्षों तक ये आंदोलान चला लेकिन बाद में ये आंदोलान कमजोर पड़ गया
आपको शायद ही पता होगा १९५३ में आंध्रप्रदेश और रायल सीमा मद्रास प्रान्त नाम के हिस्से थे आज के तेलंगाना में स्थित हैदराबाद अंग्रेजो ने राज्य बना रखा था , जब १९५३ में राम नगरु नायडू ने अनशन किया की इस सम्पूर्ण क्षेत्र को तेलगू भाषी क्षेत्र के रूप में तेलंगाना बना दिया जाये जिनकी ६४ दिन बाद मौत हो गयी, उसके बाद १९५३ को आंध्रप्रदेश भाषाई अधार पर पहला राज्य| बना १९६९ में ये आंदोलन फिर शुरू हुआ जिसमे जादातर छात्र थे किन्तु बाद में आम आदमी भी शामिल होते गए जबकि सरकार ने इस आंदोलन को कठोरता से कुचल दिया| इसमें लगभग ३५० से जादा लोग मारे गए उसी समय की बात है जब जय तेलंगाना का नारा प्रजा राजम्य पार्टी के नेता एम. चेन्ना रेड्डी ने उछाला जिससे कुछ मामला तो तेज हुआ पर इनके आंदोलन से अलग हो जाने पर आंदोलन को गहरा झटका लगा और साथ ही तेलंगाना क्षेत्र के नेता नरसिंहा राव को आन्ध्रा का मुख्यमंत्री बना दिया गया|
अब अचानक ६० साल बाद हमारे देश के नेताओ को तेलंगाना की क्या आवश्यकता पड़ गयी क्या ये एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है| पहले तो आप सबको भारतीय होना समझा रहे है जब सारे राज्य भाषा के आधार पर बाटते रहंगे तो फिर हमे भारतीय कौन कहेगा फिर तो हमारी पहचान सिर्फ बिहारी, पंजाबी, तेलगु, बंगाली के आधार पर हो जायेगी| भारतीय संविधान के अनुच्छेद १५ में कहा गया है “जन्म, मूलवंस, जाति, लिंग, या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं होगा” पर आपको भलीभांति पता होना चाहिए जब तक भेदभाव नहीं होगा तब तक धर्म की राजनीति नहीं होगी जिसका फायदा अपने देश के नेता संवैधानिक रूप से उठाते है SC, ST और OBC का हवाला दे कर जो अनुच्छेद १५(४) व अनुच्छेद १६(४) कहता है पर ये नियम संविधान बनने के बाद संविधान संशोधन करके सिर्फ १० वर्षों के लिए थे पर राजनितिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए ये प्रत्येक १० वर्षों में १० वर्ष के लिए बढ़ा दिया जाता है| ये मुद्दा था धार्मिक जो लगभग सभी पार्टियों के पास कूट-कूट कर भरा हुआ है और बात रही तेलंगाना की तो उनके पास कोई राजनीति का दूसरा मुद्दा के आभाव में आकार ये मुद्दा उठाया गया है|
मुझे समझ नहीं आता ये नेता कभी,
रोटी या भूखे पेट की बात क्यों नहीं करते है ?
अन्न संरक्षण की बात क्यों नहीं करते ?
भयंकर सर्दी में मरने वालो की बात क्यों नहीं करते ?
उर्जा की बात क्यों नहीं करते ?
बढ़ती जनसख्यां और बेरोजगारी को मुद्दा क्यों नहीं बनाते ?
क्या अलगाववादी अवधारणाओं से लिप्त है राजनीती ?
ये सारे सवाल हमारे देश के नेता बचे-खुचे कुछ भारतीयों से है | यहाँ मैंने ” बचे-खुचे भारतीयों “ शब्द का प्रयोग इसलिए किया की शायद ही अपने आप को भारतीय कहने वाले बचे है जो पहले अपने आप को अपने मूल से जोड़ते है देश नहीं |
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