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‘रानी पद्मावती’ और भंसाली की महत्वाकांक्षी फ़िल्म पद्मावती

सुकून मिलता है दो लफ़्ज कागज पर उतार कर, कह भी देता हूँ और ....आवाज भी नहीं होती ||
सुकून मिलता है दो लफ़्ज कागज पर उतार कर, कह भी देता हूँ और ....आवाज भी नहीं होती ||
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मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ और आज अध्यापन से जुड़ा हूँ, मुझे तब सबसे ज्यादा दुःख होता है जब कोई इतिहास के पुराने पन्नों को फाड़कर अपने नए पन्ने लगाना शुरू कर देता है। लोगों को मनोरंजित करने के बहाने उन्ही के पूर्वजो की धज्जियां उड़ा देता है। आज के दर्शक मूक बन कर देखते है और तालियां बज कर बाहर आकर फ़िल्म के किरदारों द्वारा साज सज्जा की तारीफ करते है। वास्तव में ये लोग ये भूल जाते है कि जिसने हमारे समाज की अस्मिता बचाने के लिये अपनी जान की भी न सोची क्या हम उनके लिए कुछ नही सोच सकते?


मैं आपको आज रानी पद्मावती से सम्बंधित सभी व्यक्तियों का विवरण बताऊंगा, सबसे पहले रानी जी के बारे में रानी पद्मावती राजा गन्धर्व और रानी चम्पावती की बेटी थी. जो कि सिंघल कबिले में रहा करती थी, जो उनके बेहद करीब था। पद्मावती बहुत सुंदर राजकुमारी थी, जिनकी सुन्दरता के चर्चे दूर-दूर तक थे वे केवल सुन्दर ही नहीं, रानी पद्मावती बुध्दिमान और साहसी भी थी।



राजा रतन सिंह- गुहिलवंश के वंशज रतन सिंह इस वंश की शाखा रावल से सम्बंधित थे। उन्होंने चित्रकूट के किले पर जो की अब चित्तौड़गढ़ है, महाराजा रतन सिंह का परिवार- अपने पिता समर सिंह की मुत्यु के बाद रतन सिंह ने राजगद्दी पर १३०२ ई. में हुकूमत की, जिस पर उन्होंने १३०३ ई तक शासन किया था।


रतन सिंह का महारानी पद्मावती से विवाह

राजा गंधार्व्सेना ने पद्मावती का विवाह संपन्न करने के लिए एक स्वयंवर कराने का निर्णय लिया, जो की पद्मावती के पिता थे। स्वयंवर में हिस्सा लेने के लिए कई पराक्रमी हिन्दू राजाओं को निमंत्रण भेजा था, अपने पराक्रम से महाराजा मलखान सिंह को हराकर पद्मिनी के साथ सात फेरे लिए। महारानी पद्मावती से विवाह करने के बाद उन्होंने फिर दोबारा किसी और से विवाह नहीं किया।


अलाउद्दीन खिलजी (वास्तविक नाम अली गुरशास्प १२९६ -१३१६ ई.) दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का दूसरा शासक था। इतिहासकार स्मिथ अलाउद्दीन को क्रूर एवं अन्यायी राजा मानते है, जबकि एल्फिंस्टन का कहना हैं की उसका शासन गौरवपूर्ण था और अनेक मूर्खतापूर्ण एवं क्रूर नियमो के बावजूद भी वह एक सफल शासक था, इसके कुछ सैन्य अभियान थे जिसमे की रणथम्भौर अभियान और चित्तौड़ अभियान इसने सम्बंधित हैं।



सबसे पहले रणथम्भौर अभियान (१३०० -१३०१ ई.) की बात करे तो यहाँ पर ही सबसे पहले जौहर व्रत की व्याख्या होती है, यही के किले पर राजा हम्मीर देव अपने सैनिको के साथ लड़ते हुए मारे गए थे। उनकी रानियों ने जौहर व्रत ले लिया था। अमीर ख़ुसरो स्वयं रणथम्भौर में था इस जौहर व्रत का चित्रण किया। किसी समसमायिक लेखक द्वारा जौहर व्रत का प्रथम चित्रण हैं।


इसके बाद आता है चित्तौड़ अभियान (१३०३ ई. ) चित्तौड़ का क़िला सामरिक दृष्टिकोण से बहुत सुरक्षित स्थान पर बना हुआ था। इसलिए यह क़िला अलाउद्दीन की निगाह में चढ़ा हुआ था। कुछ इतिहासकारों ‘पद्मावत की कथा’ के आधार पर चित्तौड़ पर के आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपन सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है।


अन्ततः २८ जनवरी १३०३ ई. को सुल्तान चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार करने में सफल हुआ। राजा रतन सिंह युद्ध में शहीद हुये और उनकी पत्नी रानी पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया। गोरा और बादल की कहानी भी इसी अभियान से जुड़ी है। अलाउद्दीन ने अपने पुत्र खिज्र खां को यहां का प्रशासक नियुक्त किआ और चित्तौड़ का नाम बदलकर खिज्राबाद कर दिया।


जौहर क्या होता है?

जौहर पुराने समय में भारत में राजपूत स्त्रियों द्वारा की जाने वाली क्रिया थी। जब युद्ध में हार निश्चित हो जाती थी तो पुरुष मृत्युपर्यन्त युद्ध हेतु तैयार होकर वीरगति प्राप्त करने निकल जाते थे तथा स्त्रियाँ जौहर कर लेती थीं अर्थात जौहर कुंड में आग लगाकर खुद भी उसमें कूद जाती थी। जौहर कर लेने का कारण युद्ध में हार होने पर शत्रु राजा द्वारा हरण किये जाने का भय होता था। जौहर क्रिया में राजपूत स्त्रियाँ जौहर कुंड को आग लगाकर उसमें स्वयं का बलिदान कर देती थी। जौहर क्रिया की सबसे अधिक घटनायें भारत पर मुगल आदि बाहरी आक्रमणकारियों के समय हुयी।



दोस्तों ये था वास्तविक इतिहास था, जबकि फिल्म की कहानी और करणी सेना आपस में विवाद है, इसी विवाद के चलते पूरे देश में एक विरोध की लहर चल रही हैं मेरे हिसाब से ये विरोध कुछ हद तक ठीक भी हैं। अगर किसी की भावना को ठेस पहुँचाया जा रहा है वो भी एक गलत ऐतिहासिक कथा का पात्र बना कर प्रदर्शित करके।


भारत का संविधान सबको समता का अधिकार देता हैं और अपनी धार्मिक भावना को प्रचार प्रसार का भी अधिकार देता है लेकिन पूरे संविधान में कहीं भी किसी की भावना को ठेस पहुंचाने का अधिकार नहीं देता। पिछले कुछ दिनों से भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा को हावी होते देखा जा सकता है, नेताओ के बयानों में, जे .एन. यू. के कुछ छात्रों में, फेसबुक में, व्हाट्सप्प के पोस्ट और वीडियो में, और भी बहुत जगह है जहाँ कम्युनिस्ट विचारधारा को देखा जा सकता है।


दोस्तों कम्युनिस्टों ने देश के इतिहास को गलत तरह से दिखने की पूरी ताकत झोंक दी जो अब हम लोगो को फिल्मो में भी दिखाया जा रहा है। अगर आपको फिल्म बनानी ही थी तो आप रानी पद्मावती का नाम न लेते जबकि आपने इन्ही का नाम लेकर उन्ही की कहानी को प्रेम प्रसंग में बदल दिया।


दोस्तों कहा जाता है फिल्मे समाज का आइना होती है लेकिन आप समाज की भावनाओ के साथ खेल नहीं सकते। आपको चाहिए की आपने जिस समाज के इतिहास से ये फिल्म उठाई है उसी समाज के लोगो को ये फिल्म दिखाएँ और उनसे इसमें खामियां पूछें।


इस बात में भी मैंने देखा की कुछ टीवी न्यूज़ चैनलों में ये बहस चल रही है की क्या संजय लीला भंसाली इस समाज के वजह से अपनी फिल्म से विवादित सीन हटा दे ? तो मैं ये कहना चाहता हूँ की ये बहस का विषय नहीं है संजय जी को विवादित सीन हटा देने चाहिए और समाज के सामने के समक्ष एक साफ़ सुथरी ऐतिहासिक फिल्म रखनी चाहिए।


मैं न तो फिल्म का विरोध कर रहा हूँ न ही फिल्म के किसी भी कलाकारों का, मैं विरोध कर रहा हूँ एक अच्छे इतिहास को गलत तरह से पेस करने का अगर कोई भी व्यक्ति इतिहास से खिलवाड़ करके कुछ भी परोस सकता है तो उसको सजा मिलनी चाहिए। किसी फिल्मकार को उसकी फिल्म बैन करने से अगर उसे अपनी गलती का एहसास हो सकता हैं तो फिल्म बैन भी होनी चाहिए क्योकि आगे कभी कोई ऐसी फिल्म बनाने की न सोचे।

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