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सरकार की योजनाएं ग्रामीण जन तक क्यों नहीं पहुंचती हैं यह सोचने का विषय है। क्योंकि बहुत सारी योजनाएं अव्यवहारिक होती हैं। आजकल सभी सरकारों की यह योजना चल रही है की पैसा सीधे किसानों मजदूरों या ग्राम प्रधानों के खातों में डाला जा रहा है। सरकार की तरफ से योजनाएं बनाने वाले अधिकारी ब्यूरोक्रेट, अर्थशास्त्री जो कभी गांव में जाकर उनकी स्थितियों का अध्ययन नहीं करते हैं बल्कि उनके मातहतों द्वारा प्राप्त आधी अधूरी जानकारी डाटा के आधार पर योजनाएं बनाकर सरकार को प्रस्तुत की जाती है और सरकार को बताया जाता है की इस योजनाओं से किसानों को सीधे फायदा होगा।
अगर हम प्रधानमंत्री आवास योजना की बात करें तो गांव में पात्र व्यक्तियों का चुनाव ग्राम प्रधान द्वारा किया जाता है और पात्र व्यक्तियों में उन्हीं का नाम शामिल किया जाता है जो कम से कम 5 से ₹10 हजार रुपए एडवांस के रूप में देते हैं। जो नहीं देता है उसका नाम शामिल नहीं किया जाता है और यह पैसा ब्लॉक स्तर पर इकट्ठा किया जाता है तथा इस सिस्टम में शामिल सभी व्यक्तियों को ईमानदारी से बांट दिया जाता है। खाते में पैसा आने पर फिर 10% धन देने के बाद दूसरी किस्त जारी की जाती है। इसी प्रकार शौचालयों के निर्माण में दो से ₹4000 रुपए प्रति शौचालय लिए गए। और उन रुपयों का बंदरबांट किया गया।
गांव में विकास योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए तकनीकी रूप से अनुमोदित एजेंसियों को फंड दिया जाना चाहिए। ताकि एजेंसियां समुचित तरीके से योजना बनाकर विशेषज्ञों की सहायता से सरकार की योजना निर्माण को कार्यान्वित कर सकें। गांव में बने प्राथमिक स्कूलों सड़कों, नालियों की स्थिति बहुत ही खराब है। निर्माण के बाद तीन चार साल में ही सब ध्वस्त हो जाते हैं और फिर नए निर्माण कार्यों का बजट बनना शुरू हो जाता है।
गांव की टाउनशिप प्लानिंग बड़ी खराब है। गांव के लोगों का घर की स्थिति तितर-बितर है। किसी किसी गांव में घुसना बहुत मुश्किल है। घरों के नालियों का पानी सड़क पर आता है उनके लिए कोई ड्रेन नहीं है। आबादी बढ़ने के कारण घरों के आसपास जो जगह थी उस पर मकान बन गए। रास्ते अवरुद्ध हो गए। जिसके कारण गंदगी का साम्राज्य हो गया। यही कारण है कि गांव में बीमारियां ज्यादा बढ़ रही हैं।
किसानों द्वारा पारंपरिक कृषि जैसे धान, गेहूं सरसों आदि की खेती के अलावा फल और सब्जियां उगाने में भी कोई लाभ नहीं मिल पाता है। क्योंकि जो सब्जियां शहरों में कस्बों में 30 से ₹40 रुपए प्रति किलो बिकती हैं वह किसानों को 5 से ₹6 रुपए प्रति किलो बेचना पड़ता है जिसके कारण उनकी लागत निकालना मुश्किल हो जाता है। यही कारण है कि किसान फिर अपने पारंपरिक कृषि धान और गेहूं को बोने के लिए मजबूर हो जाता है। घर उनके फल सब्जियों के उत्पाद खेत से ही खरीदने के लिए कोई एजेंसी रहती तो किसान अपने आप ही समृद्ध हो सकते है। पैदावार और वितरण के असंतुलन से किसान और उपभोक्ता दोनों को फायदा नहीं होने वाला है। इसलिए सरकार को पैसा बांटने की अपेक्षा ग्राम मार्केटिंग की तरफ ध्यान देना चाहिए।
नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं और इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं। इससे संस्थान का कोइ लेना-देना नहीं है।
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