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वह कुछ पल

vechar veethica
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बालपन से ही भूतों की चर्चाएं सुन सुन कर किशोर हुआ था | कभी सहपाठियों से तो कभी बड़ों से | अतः भूतों के विषय में उत्सुकता भी थी , भय भी था और संदेह भी था | उत्सुकता थी कि किसी भूत को साक्षात् देखूं | भय था कि यदि ऐसा हुआ , तब क्या होगा | संदेह था कि भूत होते भी हैं या नहीं | एक ओर भूतों के आस्तित्व कि सत्य कथाएँ और विश्वासपूर्ण आख्यान ,भूतों के आस्तित्व को स्वीकारने को विवश करते थे | वहीं दूसरी ओर पत्र पत्रिकाओं में यदा कदा यह भी पढ़ने को मिलता था कि कुछ अराजकतत्व , तस्कर एवं डकैत आदि , किसी वीरान खंडहर में अपने असमाजिक कार्यों को अंजाम देने के लिए ,भूतों की अफवाह , भ्रम अथवा स्वांग का सुरक्षा कवच रचते हैं | यह सब भूतों के आस्तित्व को नकारने को प्रेरित करता था | परिणामस्वरूप भूतों के विषय में संदेह और घनीभूत होता जा रहा था | एक दिन अपनी माँ से मैने पूछा था ,
अम्मा , क्या भूत सच में होते हैं ?
माँ ने अतयंत ईमानदार उत्तर दिया था ,
बेटा ! मैने सुना तो है की भूत होते हैं , परन्तु ठीक से नहीं कह सकती की भूत होते हैं या नहीं |
अम्मा , क्या तुमने कभी भूत देखा है ? मैने पूछा |
नहीं | माँ ने कहा |
अम्मा , क्या तुमसे कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिला , जिसने भूत देखा हो ?
नहीं , पर कई लोग ऐसे मिले जो यह तो कहते थे , कि वह उन लोगों को जानते हैं , जिन्हों ने भूत देखा है | पर कोई ऐसा नहीं मिला , जिसने कहा हो कि हाँ मैने भूत देखा है |

मेरी भी स्थिति तो ऐसी ही थी | इस स्थिति में और माँ के ईमानदार वक्तव्य ने , भूतों के आस्तित्व को नकारने के विश्वास को सुदृढ़ तो किया , परन्तु संदेह तो फिरभी विद्मान रहा |
ऐसी ही मनःस्थिति में , जब मैं हाई- स्कूल का छात्र था , मेरी पूज्य दादीमां का स्वर्गवास हो गया | दीर्घ काल से वह जिस कमरे मेँ रह रहीं थीं , वह अब खाली था | परिवार वालों ने , हाई-स्कूल कि पढ़ाई को महत्वपूर्ण मान , वह कमरा मुझको देने का निर्णय किया | माँ ने पूछा था ,
बेटा ! इसमें डरोगे तो नहीं ?
मैं माँ का आशय समझ गया | किशोर वय का प्रभाव था , या मेरा अब तक का विश्वास | तपाक से कहा ,
नहीं ! बिलकुल नहीं !! कैसा डर !!!
घर वाले मेरे आत्मविश्वास से प्रभावित हुए , और उस कमरे मेँ मेरे रहने , पढ़ने एवं सोने की व्यवस्था कर दी गयी | कमरा पहली मंजिल पर घर के पृष्ठ भाग में था | उसके पीछे पार्क था | कमरे कि खड़की पार्क की ओर खुलती थी | उसी खड़की के आगे मेरी मेज , कुर्सी लगा दी गयी , और मुझको रात में देर तक पढ़ने की अनुमति भी प्राप्त हो गयी |

जाड़े की एक रात थी | कड़ाके की ठंड में , मैं गर्म वस्त्रों और कंबल में आवर्त , अपनी मेज कुर्सी पर बैठा , अध्ययन में तल्लीन था | ठंड के कारण , सामने की खिड़की और पीछे का दरवाजा भी बंद कर लिया था | चारो ओर नीरव शांति का साम्राज्य था | ऐसे में अचानक ‘ खड़ ‘ की मद्दिम सी ध्वनि | सोचा कोई मूषक होगा | परन्तु ‘ खड़ खड़ ‘ की ध्वनि निरंतर और स्पष्ट होने लगी | वह भी नीचे फर्श पर नहीं , ऊपर हवा में | सतर्क हुआ | दृष्टि ऊपर उठाई और ध्वनि का स्रोत खोजने लगा | पाया , सामने खड़की पर लगी सिटकनी से वह ध्वनि उत्पन्न हो रही थी | सिटकनी ऊपर चढ़ी नहीं थी | नीचे अपने अवलम्ब पर टिकी कम्पन्न कर रही थी | दृष्टि और ऊपर उठी | खड़की के ऊपर दीवार पर लगी घड़ी तक | रात के बारह बज रहे थे | तन सिहर उठा | यह क्या हो रहा है ? सिटकनी अपने आप आप कैसे हिल रही है ? कही कोई अन्य हलचल भी नहीं | क्या यह भूत की करामात है ? क्या वह मेरे सामने प्रकट होगा ? तब ही वह ‘खड़ खड़’ की ध्वनि तीव्र से तीव्रतर होने लगी | भय अब मुझको अपने आलिंगन में लेता जा रहा था | किशोर वय का आत्मविश्वास और परिवार को दिया आश्वासन , मेरे साहस को बैसाखियां लगाने का प्रयत्न कर रहे थे | साहस ने जोर मारा कि चलो आज देख ही लिया जाये ,कि भूत कैसा होता है | परन्तु भय था कि पराजित होने का नाम ही नहीं ले रहा था | मैं कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया | सिटकनी अब मुझको स्पष्ट रूप से कम्पन्न करती दिखाई दे रही थी | साहस ने फिर ललकारा , ‘ पकड़ ले सिटकनी को | देखते हैं क्या होता है ? ‘ मैं फुर्ती से कुर्सी पर चढ़ गया | एक पैर मेज पर रख कर , सिटकनी की और हाथ बढ़ाया | तब ही भय ने कड़क चेतावनी दी , ‘ छूना मत इसको ‘ | मैं जिस फुर्ती से ऊपर चढ़ा था उसी फुर्ती से नीचे उतर आया | साहस ने धीमे से सांत्वना दी , ‘ देखता रह , आखिर कब तक हिलेगी यह ‘ |

तब ही दाहिनी ओर दूर क्षितिज से धड़-धड़ ! धड़-धड़ !! धड़-धड़ !!! कि ध्वनि सुनाई देने लगी | वह अतयंत तीव्र गति से मेरी ओर आ रही थी | मैं चकित सा , आँखें फाड़े , कमरे मैं चारो ओर देखने लगा | मेरा शरीर थर-थर कांप रहा था | तब ही एक तीखी कू !—-उ !!——-उ !!!———- की ध्वनि , जैसे मस्तिष्क को चीरती हुई निकल गयी | मुख से एक चीख निकलते निकलते रह गयी | मस्तिष्क सुन्न हो गया था | कमरे की प्रत्येक वस्तु घूमती दिखाई दे रही थी | साहस ने किसी भांति मेरे होशो – हवास को सम्हाले रखा | अब वह ध्वनि बायीं ओर झग-झग !!! झग-झग !! झग-झग करती दूर क्षितिज मैं विलीन हो रही थी | कुछ पलों मेँ समस्त ध्वनियां शांत हो गयीं | सिटकनी भी अब पूर्ववत स्थिर और शांत थी | उस कड़क ठंडी रात मेँ , मैं पसीने से तर- बतर अपने पलंग पर बैठा था |

साहस मन मस्तिष्क को सहला कर धीरे धीरे पूर्ववत लाने का प्रयास कर रहा था | मन शैनः शैनः शांत हुआ | मस्तिष्क फिर से सोचने , समझने की स्थिति में आया और बीती घटना का विश्लेषण करने लगा | याद आया , घर के पीछे , लगभग एक फर्लांग दूर रेलवे लाइन है | जिस पर रात के बारह बजे ,नित्य एक ट्रेन गुजरती थी | यह वह ही ट्रेन तो थी , जो अभी अभी गुजरी थी | परन्तु वह सिटकनी कम्पन्न क्यों कर रही थी ? याद आया , भौतिक विज्ञानं की पुस्तक में ध्वनि का अध्याय | याद आया , भौतिक विज्ञानं के गुरुजी द्वारा दिया गया व्याख्यान , जिस में उन्हों ने बताया था कि ‘ ट्रेन के तीव्र गति से चलने पर , मीलों दूर तक की पटरियों में कम्पन्न उत्पन्न होता है , जिसको पटरी पर कान लगा कर अनुभव किया जा सकता है | यह कम्पन्न वायु ,गैस अथवा वातावरण के माध्यम से दूर दूर तक प्रेषित होते हैं | दूर स्थित किसी वस्तु की आवृति [ Frequency – समय की एक निश्चित इकाई में किसी वस्तु अथवा पदार्थ की दोलन संख्या को उसकी Frequency अर्थात आवृति कहते हैं ] किसी स्रोत वस्तु के आवर्त्तन से ,संयोग वश , अथवा सप्रयास एक समान हो जाये , तो वह वस्तु भी उसी गति में कम्पन्न करने लगती है ‘ | अब समझ में आ रहा था कि सिटकनी में कम्पन्न क्यों थे |अब मन मस्तिष्क और शरीर सभी प्रकार के तनावों से मुक्त हो चुके थे | में स्वयं अपने ऊपर हंस पड़ा | क्यों ? उस हंसी में एक झेप भी थी और एक विजय का भाव भी | एक संदेह पर निर्णायक विजय का भाव | अपने विश्वास और परिवार को दिए आश्वासन की जीत की प्रसन्नता थी | प्रसन्नता थी कि मेरी स्वर्गवासी पूज्य दादी जी , किसी सम्भावित अपयश से बच गयी थीं |

आज उस अनुभव को लिखने अथवा वर्णन करने में पर्याप्त समय लगता है , परन्तु वह सब घटा कुछ पलों में ही था | आज उन पलों को याद करता हूँ , तो सिहरन भी होती है और रोमांच भी | आज जब चिंतन मनन करता हूँ , तो पता हूँ कि वह कुछ पल मुझको कितना कुछ सिखा गये |

उन पलों से मैने भूतों के आस्तित्व की तार्किक अस्वीकृति सीखी | अब मैं जानता हूँ , कि किसी को भूत क्यों और कैसे दिखाई देते हैं | जब किसी प्रकार का अथवा अनेक प्रकार के भय घनीभूत हो कर मनुष्य के सुसुप्त मस्तिष्क एवं अंतःकरण मैं कहीं गहरे अवस्थित हो जाते हैं , वह ही भय मनुष्य के किन्हीं अति दुर्बल मानसिक पलों में , विभिन्न आकार ले कर प्रकट हो सकते हैं | जिनको लोग भूत समझते हैं |

उन पलों से मैने सीखा , कि तानसेन जब गाते थे , तब उनके पास रखे वाद्य यंत्रों का स्वतः ही बज उठना , मिथ नहीं सत्य था | यदि वाद्य यंत्रों को गेय स्वरों की आवृति में ट्यून किया जाये , तो यह सम्भव है | केवल दो तार ही क्यों , किन्हीं दो ह्रदयों की तंत्रिकाएं भी यदि एक ही आवृति में ट्यून होजाएं , तो वह भी एक साथ ही झंकृत होती हैं |

बहुत समय पूर्व स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी की जीवनी पढ़ते समय , उसमें वर्णित एक घटना याद आ रही है | एक दिन स्वामी जी ने देखा , कि एक व्यक्ति दूसरे को कोड़ों से मार रहा है | यह देख स्वामी जी की पीठ पर कोड़ों के प्रहार की लाल रेखाएं उभर आई थीं | तब मैने सोचा था , ऐसा सम्भव नहीं हो सकता |
यह लेखक की श्रद्धा का अतिरेक है , या किसी भक्त की भावनाओं की अतिश्योक्ति | आज उन कुछ पलों के परिपेक्ष में सोचता हूँ , तो विश्वास जगता है , कि ऐसा सम्भव हो सकता है | जब किसी व्यक्ति की संवेदनाओं का आवर्त्तन , किसी अन्य मनुष्य अथवा जीव की संवेदनाओं के अनुरूप हो जाता है , तब यह व्यक्ति , उस अन्य व्यक्ति अथवा जीव के सुख या पीड़ा से आनंदित अथवा व्यथित होता है | इस ही प्रकार जब किसी व्यक्ति की संवेदनायों के सपंदन , समस्त सृष्टि की संवेदनाओं के सपंदनों के साथ एकाकार हो जाते हैं , तब उस स्थिति को ही निर्वाण कहते हैं , और जो व्यक्ति उसको प्राप्त करता है , वह बुद्ध हो जाता है |

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