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जीवन के समग्र उन्नयन की कला है योग

vechar veethica
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वह जो इस सृष्टि के उद्भव का कारण है । जो इस सृष्टि का आधारण है । वह जो इस सृष्टि का सृजनहार है । वह जो इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है , फिर भी जो अज्ञात है । केवल वह ही एक जानने के योग्य है , क्यों कि वह ही इस सृष्टि का प्रथम और अन्तिम सत्य है ।

वह जिसके प्रकाश से यह समस्त सृष्टि उद्भासित है । वह जिसके बल से यह सृष्टि संचालित है । वह जो इस सृष्टि का पालनहार है । वह जिसकी गति से प्राकृति में गति अनन्त है । वह जिसके प्रताप से यह सृष्टि जीवन्त है । केवल वह ही एक अनुभव करने के योग्य है , क्यों कि वह ही सर्वशक्तिमान चैतन्य है ।

वह अभिष्ट जिसकी ओर यह समस्त सृष्टि निरन्तर गतिमान है । वह आकांक्षा जो सब जीवों में एक समान है । वह जो इस सृष्टि की विश्रातिं का आधार है । मृग-तिृष्णा सी जिसकी प्यास अतीत है । जग के आकर्षणों में जिसकी मात्र प्रतीत है । केवल वह ही एक पाने के योग्य है , क्यों कि वह ही चिर , निरन्तर , नित्य , अखण्ड आनन्द है ।

जिज्ञासा से अनुभव एवं अनुभव से आनन्द की उपलब्धि तक जीव की और सृजन से निर्वाहन तक एवं निर्वाहन से विसर्जन तक जगत की सूदीर्ध यात्रा में कई सोपान हैं । इन सोपानों पर सफलता पूर्वक ,सुचारू रूप से आरोहण की कला है योग । योग के विभीन्न आयाम हैं जैसे निग्रह-निषेध , आहार-विहार , आसन-व्यायाम , प्राणायाम आदि जिनकी खोज ऋषि मुनियों ने मानवता के कल्याण के लिए की थी । इनका आश्रय ले कर कोई भी मनुष्य जितने सोपानो तक स्वयं को आरोहित करना चाहे , आरोहित हो कर उसके अभिनव परिणामों से लाभान्वित हो सकता है ।

जीवन के प्रत्येक सोपान पर उन्नयन की प्रत्येक कला अपने आप में योग की परिभाषा है । जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं ।

ईश्वर द्वारा मनुष्य जीवन के निर्धारित भौतिक और आध्यात्मिक कार्यो के सुचारू रूप से सम्पन्न करने हेतु स्वस्थ , सुन्दर एवं सामर्थवान शरीर प्राप्त करने का उपाय है योग ।

मनुष्य की इस जीव-जगत की यात्रा में आने वाले दुखः-सुख , हानी-लाभ , जय-पराजयों के मध्य सन्तुलन स्थापित करने का नाम है योग ।

बिना किसी आवेग एवं आपेक्षाओं के कर्तव्यों के प्रतिपादन की सामर्थ अर्जन का नाम है योग ।

कर्तव्यों के निर्दोष सम्पादन के लिये मन की चंचल वृतियों पर नियंत्रण का नाम है योग ।

श्वास-प्रश्वास के माध्यम से ब्रह्मांडीय ऊर्जा को मानवीय पिंड में अवतरण एवं धारण करने की क्षमता प्राप्त करने का नाम है योग है ।

इस प्रकार विराट की सूक्ष्म में अनुभूति का नाम है योग ।

जगत के कल्याण हेतु बुद्धि को परिमार्जित कर तमस से रजस एवं रजस से सत्व में प्रकाशित करने का उपक्रम है योग ।

आध्यात्म के और अतिरिक्त स्तरों तक उनन्त होने के लिये इन त्रिगुणों से भी पार जाने के पराक्रम का नाम है योग ।

इस प्रकार आध्यात्म के अतिरिक्त स्तरों तक उनन्त हो कर , मनुष्य के अपने देहाभिमान को लांध कर अपने आत्म-स्वरूप को उपलब्ध हो जाने का नाम है योग ।

अपने आत्म-स्वरूप को उपलब्ध हो कर यह अनुभव करना कि मैं उस विराट चैतन्य शक्ति का एक अंश हूँ , जो इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और यह सृष्टि स्वयं उस सागर सम असीम , अनन्त विस्तार में , स्वयं उसी के संकल्प से प्रकट हुई एक लहर मात्र है । इस सत्य का बोध प्राप्त करना योग है ।

इस सत्य का बोध प्राप्त करके उस विराट के साथ ऐकीकार हो जाना योग है ।

उस विराट के साथ ऐकीकार हो कर उस आनन्द-स्वरूप के अनन्त , अखण्ड प्रेम में नित्य रमण करने का नाम योग है ।

उस आनन्द-स्वरूप के प्रेम में नित्य रमण करते हुए , जीव-भाव से मुक्त हो कर ब्रह्म-भाव में अवस्थित हो जाना योग की पराकाष्ठा है ।

प्रत्येक मनुष्य को योग के इन सोपानों पर आरोहण का प्रयास अवश्य करना चाहिए , क्यों कि इस समस्त जीव-जगत में मनुष्य ही मात्र ऐसा प्राणी है जो इन सोपानो के अन्तिम चरण तक आरोहण की सामर्थ से उपकृत है । उसको ईश्वर-प्रदत्त अपनी इस सामर्थ का सदोपयोग बिना किसी काल , परिस्थिति , आयु आदि का विचार किये हुए अविलम्ब करना चाहिए । क्यों कि योग की उलब्धियां अक्षुण्ण हैं । योग के परिणाम जन्म-मृत्यु की सीमाओं से बाधित अथवा खण्डित नहीं होते । इस जीवन में योग का आरोहण जिस सोपान तक हो जाता है , अगले जीवन में योग की यात्रा उसी सोपान से आगे बढ़ती है । यदि आप इस पर विश्वास करे तो . . . . . . . . . . . . . .

यदि इस पर विश्वास न भी करें तो भी वर्तमान जीवन में योग से प्राप्त होने वाली उलब्धियां न तो कम होगीं और न ही उनका महत्व कम होगा । योग को अपना कर तो देखें ।

ऋषि-मुनियों की यह खोज समस्त मानव जाति के लिये वरदान है । यह प्रत्येक जाति , धर्म , सम्प्रदाय के मनुष्यों की चिर आनन्द की खोज को उनके अन्तिम लक्ष्य तक पहुचाती है। वह सर्वशक्तिमान सत्य , चैतन्य , आनन्द स्वरूप जो इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हो कर भी सूरज , चाँद , सितारों में , पाषाण के विभिन्न निखारों में , साकार-निराकार के विचारों में भिन्न-भिन्न नाम रूपों से भासित होता है , उस अनेकत्व से एकत्व की यात्रा का नाम ही तो है योग ।

जब मनुष्य अपने सम्प्रदाय के नियम-विधानों का आचरण-अभ्यास करते हुए उसके मर्म को आत्मसात कर लेता है , तब वह नियम-विधानों की शाब्दिक परिभाषाओं और व्याख्याओं से मुक्त हो कर उस धर्म में उनन्त होता है जिसका कोई नाम नहीं है , जो सर्वकालिक है , जो सर्वदेशिक है , इस लिये जिसे सनातन कहा जाता है । जहां पर केवल प्रेम है , दया है , करुणा है , ममता है , क्षमा है , आस्तेय है , अहिंसा है , शान्ति है और आनन्द है । इस प्रकार प्रत्येक मानव जीवन के समग्र उन्नयन की कला है योग ।

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