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भारत में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य धनार्जन ही तो है!

vechar veethica
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घर के सामने फेरी लगाकर सब्जी बेचते व्यक्ति के साथ उसके किशोर बालक को देखकर पूछा, ” इसे स्कूल क्यों नहीं भेजते, इसे साथ लिए क्यों घूम रहे हो?” वह बोला , “क्या होगा स्कूल भेजकर। पढ़-लिखकर कोई नौकरी तो मिलने से रही। साथ रहेगा तो कुछ सीखेगा। कुछ दिनों में चार पैसे कमाने लायक हो जाएगा।” उत्तर सुनकर कुछ झुंझलाहट हुई, परंतु फिर सोचा ठीक ही तो कह रहा है। आज भारत में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य धनार्जन ही तो है। शिक्षा देने वाले का उद्देश्य धनार्जन, शिक्षा पाने वाले का उद्देश्य धनार्जन और शिक्षा न ग्रहण करने का बहाना भी धनार्जन। जबकि शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए, विद्यार्थी के अन्दर ज्ञान की ज्योति जगाकर, उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर, उसे देश और समाज का कल्याण करने योग्य बनाना। परन्तु पता नहीं क्यों आज समाज में कल्याण और धनार्जन को अलग-अलग कर देखा जाता है। पहले धनार्जन, उसके बाद कोई समाज सेवा या समाज कल्याण आदि की कोई बात।

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शास्त्रीय एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से यह अलग-अलग नहीं परस्पर जुड़े हुए ही हैं। कृषि-कर्म, उद्योग, व्यापार, नौकरी, सलाहकारी आदि समस्त कर्मों से जहां एक ओर धनार्जन होता है, वहीं दूसरी ओर इन समस्त कर्मों से किसी न किसी रूप में समाज की सेवा भी होती है। परन्तु व्यक्ति एवं समाज की प्राथमिक सोच धनार्जन है, समाज कल्याण नहीं। इस सोच को उलट कर देखो। इस दृष्टि को पलट कर देखो। तब शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों में उनकी अभिरुचियों को चिन्हित कर, उनको विकसित कर, उन्हें समाज-कल्याण के लिए समर्थवान बनाना होगा।

तब अभिभावक बालकों को अपनी संपत्ति सम समझकर उनसे अपने सपनों की पूर्ति की आकांक्षा नहीं करेंगे, बल्कि उसे ईश्वर द्वारा सौंपी गई धरोहर मानकर, ईश्वर द्वारा उसके जीवन के सुनिश्चित उद्देश्य को पहचाने में उसकी ईमानदारी से सहायता करेंगे। तब शिक्षण संस्थाओं का यह दायित्व होगा कि वे विद्यार्थियों की अभिरुचियों को पुष्पित-पल्लवित कर उन्हें उसके अनुरूप देश और समाज सेवा के मार्ग पर प्रवृत करें। विचार कीजिए, इस प्रकार देश और समाज सेवा के मार्ग पर चलने वाले क्या धनार्जन से नितांत वंचित रहेंगे। कदापि नहीं, क्योंकि हम पहले ही देख चुके हैं, ये दोनों आपस में संलग्न हैं।

आप कह सकते हैं ‘कि जब दोनों आपस में संलग्न हैं, तो इस उलट-पुलट से लाभ क्या?’ बंधुवर इससे लाभ यह है कि वर्तमान में यह युवा-वर्ग जो अपनी अभिरुचियों को तिलांजलि दे, ईश्वर द्वारा निर्धारित अपनी नियति की उपेक्षा कर, मात्र धनार्जन, धनार्जन, और अधिक धनार्जन की अंधी दौड़ में बदहवास दौड़ रहा है, उससे उसे निजात मिलेगी। यह आवश्यक नहीं कि इस दौड़ में सब अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप सफल हो पाएंगे। जो विफल होगें उनकी अवसाद, अपराध, हिंसा आदि में डूबने की आशंकाएं प्रबल होंगी। जो सफल होंगे एवं प्रचुर धन अर्जित करने में सफल होंगे, उस धन से वे सुख तो अवश्य प्राप्त कर सकेंगे, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे उससे जीवन का आनन्द भी प्राप्त कर सकेंगे। धन की बढ़ती चाहत में उनके नैतिक मूल्यों से स्खलित हो भ्रष्टाचार के गर्त में समा जाने की आशंकाएं हमेशा बनी रहेंगी।

इसके विपरीत पलट कर चलने से प्रत्येक युवा को उसका वह आकाश मिलेगा, जिसको छूना उनकी नियति ने उनके लिए निर्धारित कर रखा है। उस आकाश को छूने की उनको निर्बाध स्वतंत्रता प्राप्त होगी। देश को अनेकों अनेक सचिन तेंदुलकर, विश्वनाथन आनन्द, अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, अब्दुल कलाम, विक्रम साराभाई , सतीश धवन, ई श्रीधरन, नारायन मूर्ति आदि मिलेंगे, जो अपने-अपने क्षेत्र में अपने श्रम, यश और कीर्ति से देश के गौरव और सम्मान को अधिक उंचाइयों पर ले जाएंगे। हो सकता है उनमें से कुछ यश कीर्ति के साथ प्रचुर धन भी अर्जित करने में समर्थ होंगे, जबकि हो सकता है कि अन्य उतना धन न अर्जित कर सकें। परन्तु यह निश्चित है कि वे जो भी धन अर्जित करेंगे, उससे उनका जीवन अवश्य ही आनन्द से सराबोर रहेगा। जीवन के समस्त संघर्ष का अन्तिम उद्देश्य आनन्द को पाना ही तो है।

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