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विभाजन के बीज का संरक्षण क्यों?

vechar veethica
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भारतीय समाज विभिन्नताओं का सुरम्य संयोजन है। अति प्राचीन काल से यहां पर अनेक धार्मिक एवं जातिय समाजो का सहआस्तित्व रहा है। सबके अपने अपने धार्मिक.सामाजिक रीत, रिवाज एवं परम्पराएं रही हैं। भारतीय संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने धार्मिक, सामाजिक परम्पराओं के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह समाज अपनी धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं का नियमन एवं निर्वाहन समाज के अधिष्ठाताओं के निर्देशों के अनुसार करते हैं। समाज के मध्य उत्पन्न विवादों का समाधान, समाज की पंचायतें अपने अधिष्ठाताओं के निर्देशों की व्याख्या कर तदानुसार करती हैं। जब तक यह व्यख्याएं नैसर्गिक न्याय के अनुरूप होते हैं, दोनों पक्ष निर्णय को स्वीकार कर विवाद को समाप्त कर देतें हैं। यह जीवन्त समाजों की स्वस्थ परम्परा है। परन्तु जब कभी पंचायत का निर्णय नैसर्गिक न्याय के अनुरूप नहीं होता अथवा कोई पक्ष उससे संतुष्ट नहीं होता, तब वह देश की न्याय व्यवस्था के समक्ष गुहार लगाने का अधिकार रखता है एवं राज्य स्वयं हस्तक्षेप करने का अधिकारी होता है। फिर उस विवाद का समाधान देश के प्रभावी कानूनों के अनुसार होता है।


यहां पर यह विचारणीय है, कि किसी समाज को यह विशेषाधिकार प्राप्त होना, कि उसके सामाजिक परम्पराओं के नियमन एवं निर्वाहन में राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता, क्यों कि उसके सामाजिक नियम ईश्वरीय हैं, यह कहां तक उचित है। इन ही ईश्वरीय कानूनों से शासित होने का आग्रह ले कर एक समाज देश को विभाजित कर, एक धर्म आधारित राज्य की स्थापना करता है और उसी समाज के शेष अंश को, धर्मनिरपेक्ष देश के अन्दर उन ही ईश्वरीय कानूनों के अनुपालन का संवैधानिक संरक्षण प्राप्त होना, देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर कलंक है। यह तो विभाजन के बीज का संरक्षण है। यह देश में एक विधान, एक प्रधान, एक निशान के सिद्धान्त के विरुध है। यह तो देश की सार्वभौमिकता को चुनौती है। देश के संविधान में इस प्रकार के प्रवधानों का अविलम्ब संशोधन आपेक्षित है। जिससे इस देश का संविधान यथार्थ में धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को उपलब्ध हो सके।


यह सत्य है कि संत, महाऋषि अथवा पैगम्बर के माध्यम से अवतीर्ण ईश्वरीय संदेशों के आशय
कभी भी संकीर्ण नहीं हो सकते, परन्तु धार्मिक पदाधिकारी मनुष्यों द्वारा की गई उनकी मिथ्या और स्वार्थपूर्ण व्याख्याएं उनको संकीर्ण एवं अप्रसांगिक बना देती हैं। उस समाज के जन-समुदाय को ऐसे धार्मिक एवं राजनीतिक पदाधिकारियों और उनकी व्याख्याओं को अस्वीकार करने का साहस सृजित करना होगा। तब ही वह समाज पिछडेपन और जहालत से मुक्त हो सकेगा। उस समाज को विवेकपूर्ण ढंग से अपनी धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं का अनुपालन करते हुए, देश के अन्य धार्मिक समाजों की तरह, एक धर्मनिर्पेक्ष राज्य में रहने का अभ्यस्त होना चाहिए।

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