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वो गलियाँ…

आपका पन्ना
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फिल्‍मों में हमेशा देखती थी, समाज की बदनाम गलियाँ और वहाँ की वो सजी-धजी रातें, जो किसी भी स्‍वप्‍नलोक से कम नहीं लगता था। गहनों, भारी-भरकम कपड़ों में सजी-धजी लड़कियाँ, अपनी अदाओं और अपने गायन से मौ‍जूद लोगों को लुभाती हुई। उन्‍हें देखकर ऐसा ही लगता है कि वह जन्‍नत में जी रही हैं। जहाँ उसे सबकुछ मिला है। सच्‍चा प्‍यार भी, जो उसके लिए पूरी दुनिया से लड़ सकता है।

ऐसी दुनिया, मेरे मन में भी यह बात बैठ गई थी कि ये गलियाँ यूँ बदनाम कही जाती हैं, यहाँ तो इतना ऐशो-आराम है कि लोग चाह कर भी उसे पा नहीं सकते। खैर बचपन की वो कल्‍पनाएँ धुँधली पड़ गई, पर मन के किसी कोने में वह दुनिया आज भी कहीं दबी पड़ी थी। मैं एक छोटे शहर से आती हूँ, जहाँ जीने लायक सुविधाएँ तो थीं, लेकिन समाज को उसकी विषमताओं को अपने नजरिए से देखना स्‍वीकार्य नहीं था। जहाँ देखने को कहा जाए, वहाँ देखो, जहाँ चलने को कहा जाए, वहाँ चलो।

खैर बात कहाँ से शुरू हुई थी और मैं आपको कहाँ ले जा रही हूँ…बात हो रही थी बदनाम गलियों की। आज भी मुझे याद है- एक दिन हमारा फिल्‍म देखने का कार्यक्रम बना, पूरा परिवार साथ-साथ रिक्‍शों की सवारी पर निकल पड़ा। चूँकि शहर छोटा था और गलियाँ काफी तंग, जहाँ रिक्‍शों को बार-बार रूकना पड़ रहा था।

मैंने पहले सुन रखा था कि टॉकिज जाने के रास्‍ते में वही…गलियाँ आती हैं। घर की महिलाओं और लड़कियों को पहले ही संकेतों में यह हिदायत दे दी गई थी कि रास्‍ते में ज्‍यादा चूँ-चपड़ नहीं करनी है, इसलिए सभी आदेशों के पालन में लगी हुई थीं। मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था कि पता नहीं कितनी चमक हो उन घरों, कैसी सजी-धजी दिखती होंगी, मुझे रेखा के उस गाने– ‘इन आँखों की मस्‍ती…’का पूरा दृश्‍य घूम गया। लग रहा रिक्‍शा उड़कर उन भव्‍य इमारतों के सामने पहुँच जाए।

भइया पापा से नजरें बचाकर तिरछी नजरों से उधर देख रहे थे। मुझे समझ आ गया कि हम उसी इमारत के सामने से गुजर रहे हैं। चूँकि रिक्‍शा बहुत धीरे-धीरे चल रहा था, इसलिए मैं सुबकुछ साफ-साफ देख सकती थी, जो भी मैंने देखा वह मेरी कल्‍पनाओं से भी परे था। न तो कोई चकाचौंध, न ही भव्‍य इमारत, और न ही किसी गहने की कोई चमक थी।

था तो केवल अँधेरा, मैले से पेटीकोट और ब्‍लाउज में कुछ महिलाएँ खड़ी थीं, अपने पेटीकोट को भी उन्‍होंने घुटने तक उठा रखा था, उनकी आँखों में न कोई शरारत थी न ही वह अदा, सबकुछ स्‍याह काला, ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने काली रात का अँधेरा उनकी देहरी पर पटक दिया हो। सारी आपस में बातें कर रही थीं, कोई किसी के सिर से जुएँ निकल रही थीं कोई शून्‍य नजरों से सड़को को ताक रही थीं।

उनकी बेबाकी उनके हाव-भव में झलक र‍ही थी। इतने में हमारा रिक्‍शा आगे बढ़ गया। अब मुझे महसूस हुआ कि क्‍यों हैं ये बदनाम गलियाँ, लेकिन रेखा के उस गाने का क्‍या॥या उन तमाम फिल्‍मों का क्‍या, जो सपनों की दुनिया से भी ज्‍यादा चौंधयाई हुई है।

– नीहारिका

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