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मनोरंजन की दुनिया में नृत्यशैली

anil sharma
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परदे की दुनिया में देशी-विदेशी तमाम तरह के नृत्य बनाम डांस का अपना वजूद रहा है और सबसे खास बात यह कि कैबरे जैसे बोल्ड डांस में भी वल्गीरिटी का कहीं से कहीं तक नामोनिशान नहीं और ये संभव किया परदे की दुनिया की उस जमाने की दो हसीन कैबरे डांसर कुक्कू और हेलन ने। कैबरे की विरासत कुक्कू से हेलन को मिली। हालांकि हेलन के अलावा अरुणा ईरानी, बिन्दु, कल्पना अय्यर आदि ने भी नाम किया, मगर जो मुकाम आज कल की कुक्कू और हेलन को हासिल है वह मुकाम और किसी को नहीं।

कैबरे क्वीन कुक्कू का नाम कुक्कू मोरे था। कुकू 50 के दशक की जानी-मानी कैबरे डांसर रहीं। कुकू एक ऐसी हीरोइन थीं जो अपने भड़कीले अंदाज, भड़कीले पहनावे और खचीर्ले ढंग के लिए जानी जाती थीं। लेकिन आखिरी वक्त में वो ऐसी फटेहाल हो गईं कि दवाई खरीदने तक के पैसे नहीं बचे। कुक्कू की जिंदगी की दो टेक्निकल कलर फिल्में थी आन और मयूरपंख। उस दौर में कुक्कू का मेहनताना था 6000 रुपए। कुकू मोरे हेलेन की पारिवारिक मित्र थीं और उनके डांस के सभी लोग कायल थे। खुद हेलेन भी उन्हें खूब मानती थीं। डांस करते वक्त कुकू मोरे में इस कदर स्फूर्ति होती थी कि उन्हें रबर गर्ल के नाम से भी जाना जाता था। ये कुकू मोरे के डांसिंग टेलेंट का ही कमाल था कि कैबरे स्टाइल 50 के दशक में जरूरी बन गया। कुकू एक डांस आइटम के 6000 रुपए लेती थीं जो उस जमाने में काफी ज्यादा थी और कई लोग उनकी इतनी फीस को लेकर जलते भी थे। कुक्कू का परदे से सामना फिल्म अरब का सितारा 1946 से हुआ। मेहबूब खान की फिल्म अनोखी अदा ने उन्हें डांस नंबर के मुकाम पर पहुंचा दिया।
उसके बाद कुछ फिल्में छोड़कर अनेक फिल्में कुक्कू के नाम रही। सिर्फ प्रोफेशनल जिंदगी ही नहीं बल्कि निजी जिंदगी में भी कुकू काफी खूब चर्चित हो रहीं थी।कुकू शानोशौकत की कितनी शौकीन थीं इसका अंदाजा इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि उनके पास तीन लक्जरी गाड़ियां थीं, जिनमें से एक गाड़ी उनके इस्तेमाल के लिए थी, एक उनके कुत्ते के लिए तो वहीं एक गाड़ी उनकी खास हेलेन के लिए थी। एक से एक फ्लैट और काफी सारी जूलरी उनके पास थी लेकिन कहा जाता है कि आय कर का उल्लंघन करने के चक्कर में उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली गई। इसकी वजह से उनके पास कोई पैसा नहीं बचा।कुकू का बुरा वक्त शुरू हो गया था। संपत्ति तो गई ही साथ ही जिस निर्देशक के प्यार में वो पागल थीं वो भी उनकी मदद नहीं कर पाया। लेकिन अचानक ही एक दिन कुकू को पता चला उन्हें कैंसर है।

एक आम इंसान ऐसी गंभीर बीमारी के बारे में सुनकर टूट जाएगा, लेकिन कुकू नहीं टूटीं और खुद इसका खुलासा हेलेन ने एक इंटरव्यू में भी किया था। हेलेन के मुताबिक कुकू अद्भुत थीं। कैसी भी परिस्थिति हो कुकू कभी नहीं घबराईं और हर वक्त मुस्कुराती रहतीं। सारा पैसा चला गया था, फिल्में मिलना भी बंद हो गईं थीं, लेकिन मजाल है जो कुकू की आंखों में एक भी आंसू आया हो। बल्कि वो अपनी स्थिति का खुद ही मजाक उड़ाती रहतीं। आखिरी वक्त में तो ऐसा हाल हो गया था कि फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें गुमनामी में ही छोड़ दिया। दवाई खरीदने तक के लिए पैसे नहीं थे जिसकी वजह कुकू अपना इलाज नहीं करा पाईं और फिल्म इंडस्ट्री से भी कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया। जब उनकी मौत हुई तो भी दो आंसू बहाने के लिए फिल्म इंडस्ट्री से कोई नहीं आया, किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली। कुकू तड़प-तड़पकर इस दुनिया से चलीं गईं बस पीछे छोड़ गईं तो सिर्फ यादें। हेलेन जैसी डांसर फिल्म इंडस्ट्री को देने का श्रेय कुकू को ही जाता है।

 

माचो मैन शेख मुख्तार
उस दौर की फिल्मों में हीरो चाकलेटी ना होकर बलिष्ठ कदकाठी, पहलवानी शरीर का होता था। उस दौर की फिल्में होती थी मसलन पेड्रो उस्ताद, मंगू दादा आदि वगैरह और इसके लिए हीरो होते थे शेख मुख्तार जैसे ऊंची कदकाठी के। भले ही शेख मुख्तार का चेहरा चिकना सपाट ना रहा हो, मगर किसी हीरो के मुकाबिल वह कमतर नहीं कहे जा सकते। अपनी पहली ही फिल्म एक ही रास्ता (सन 1939) जिसमें वे प्रसिद्ध अभिनेत्री नलिनी जयवंत के साथ थे, वे छा गए थे। और फिर तो उनकी फिल्मों की गाड़ी क्या चली, लोग अपने माचो मैन के मुरीद हो गए। अभिनेता के रूप में शेख मुख्तार की बेहद पुख्ता पहचान थी। प्रशंसकों में कद्दावर, रोबदार शख्सियत वाले अपने माचो मैन को लेकर दीवानगी थी।

शेख मुख्तार चौधरी अशफाक अहमद चौधरी अशफाक अहमद के बेटे जानबूझकर स्थानांतरित हो गए और दिल्ली चले गए। शेख मुख्तार का जन्म दिल्ली में 24 दिसंबर 1 9 14 को हुआ था। उन्होंने अपने बचपन को गली चुडी वालान में बिताया था और दिल्ली -11006 में एंग्लो अरबी स्कूल, अजमेरी गेट से शिक्षा ली थी। उन्होंने 40 फिल्मों में अभिनय किया और 8 फिल्मों का निर्माण किया। भूख, टूटे तारे, दादा, घायल, उस्ताद पेड्रो, मंगू, मि. लम्बू, बेगुनाह, डाकू मानसिंह, गुरु और चेला जैसी यादगार फिल्मों ने धूम मचा दी थी। कराची में जन्म के बाद, पिता के तबादले की वजह से वे दिल्ली आ गए और यहीं उनकी शिक्षा हुई। बरसों तक फिल्म लाइन से जुड़े रहे शेख मुख्तार अपनी जिंदगी के उत्तरार्ध में विभाजित पाकिस्तान चले गए जहां उनकी शेष जिंदगी काफी तंगहाली में गुजरी और 12 मई 1980 को कराची में परदे की यह शख्सियत विदा हो गई।

वर्ष 1950 में ही बॉलीवुड को अपना ओरिजनल माचो मैन मिल गया था और वे थे शेख मुख्तार। छह फीट दो इंच ऊंचे, बेहद रौबदार शख्सियत, चेहरे पर चेचक के हल्के से दाग, जब वे परदे पर आते थे तो सामने सभी कलाकर फीके पड़ जाते थे और उनके प्रशंसकों ने उन्हें दे दिया माचो मैन का खिताब, लेकिन वर्ष 1950 से लेकर 1970 के दशक में बेजोड़ कलाकार का दर्जा पा चुके इस माचो मैन का अंत समय बेहद उथल-पुथल भरा व नाटकीय तरीके से बेहद दर्दनाक रहा। कद, काठी और रौबदार व्यक्तित्व की वजह से ही पिता उन्हें अपनी तरह पुलिसकर्मी बनाना चाहते थे, लेकिन किस्मत उन्हें ह्यमाचो मैन बनाने के लिए रूपहले पर्दे की और खींच रही थी।

रंगमंच का शौक उन्हें कोलकाता ले गया जहां उन्होंने एक रंगमंच कंपनी में नौकरी कर ली और सन 1938 से आरंभ हो गई उनकी अभिनय यात्रा। वर्ष 1980 तक उनकी सभी फिल्में खूब चली रहीं, किंतु अन्तिम फिल्म नूरजहां उनका अंत ही साबित हुई। नूरजहां अपने समय की बहुत बड़ी फिल्म थी। निमार्ता के रूप में नूरजहां शेख के लिए एक सपना थी। अपने जीवन की सारी पूंजी शेख ने इस फिल्म पर झोंक दी थी। इस जमाने के महंगे और जानेमाने कलाकार प्रदीप कुमार और मीना कुमारी नूरजहां की प्रमुख भूमिकाओं में थे। फिल्म देखकर दर्शकों को बरबस ही मुगले आजम और पुकार जैसी विशाल फिल्मों के सेट याद आ जाते थे।

दिल्ली के डिलाइट सिनेमा में नूरजहां का आॅल इंडिया प्रीमियर शो रखा गया। उस अवसर पर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री के रूप में उपस्थित थे। फिल्म को सबने सराहा, पर दुर्भाग्य यह रहा कि फिल्म हिट नहीं हो पाई, उन पर बाजार का कर्ज चढ़ गया। शेख ने हिम्मत नहीं हारी। फिल्म को सरहद पार पाकिस्तान में प्रदर्शित करने की योजना बनाई। अड़चनें तमाम थीं, रास्ता बेहद मुश्किल होता जा रहा था लेकिन तमाम अड़चनों के बावजूद आखिरकार फिल्म को पाकिस्तान में प्रदर्शित करने का उनका प्लान ठीक होता लगा, लेकिन उनके शायद सितारे गर्दिश में ही चल रहे थे।
फिल्म का पाकिस्तान में विरोध शुरू हो गया। बमुश्किल पाकिस्तान ने फिल्म प्रदर्शन की हरी झंडी दी। शेख मुख्तार अपनी सफलता से प्रसन्न होकर वापस लौट रहे थे। वे हवाई जहाज में ही थे, तभी उन्हें दिल का दौरा पड़ा और माचो मैन दुनिया को अलविदा कह गया, लेकिन फिल्म की सफलता को लेकर इस माचो मैन ने तमाम दर्द झेले, अपनी सारी जमा पूंजी दांव पर लगा दी, वह फिल्म पाकिस्तान में बड़ी हिट साबित हुई।

पाकिस्तान के लाहौर, कराची, क्वेटा और हैदराबाद में फिल्म देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। भीड़ को नियंत्रित कराने के लिए सुरक्षाबलों का सहारा लेना पड़ता था। शेख मुख्तार ने अपने जिस सपने को साकार देखने के लिए तमाम दर्द, तकलीफें झेलीं, वह सपना पूरा तो हुआ लेकिन माचो मैन के दुनिया से जाने के बाद। उनकी अभिनीत फिल्में पुणे की एक लाइब्रेरी में सुरक्षित रखी हैं।पेशेंस कूपर चलचित्र जगत के उस दौर की अदाकाराओं में पेशेंस कूपर का नाम शुमार है। जो अपनी अदाकारी की वजह से आज भी लोगों के दिलों में स्मरणीय है। पेशंस कूपर एक भारत में जन्मी पाकिस्तानी फिल्म अभिनेत्री थी। कलकत्ता के एक एंग्लो-इंडियन, कूपर ने मूक और साउंड दोनों फिल्मों में एक सफल कैरियर बनाया। वह बॉलीवुड के शुरूआती सुपरस्टार में से एक थीं। पेशंस कूपर का जन्म 1905 कोलकाता में हुआ था। पेशंस कूपर आजादी के बाद पाकिस्तान चली गई थी। कराची में 1993 में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी उस दौर की फिल्मों में भारती बालक, जयदेव, रानी, सहित अनेक फिल्में हिट थी।फातिमा बेगम आज भारतीय सिनेमा जगत में एक तरफ जहां पुरुषों का दबदबा हैं. वहीं महिलाएं भी उनको बराबरी की टक्कर दे रहीं हैं, फिर चाहे वो अभिनय के मामले में हो या बॉलीवुड से जुड़े अन्य कामों जैसे निर्देशन, स्क्रिप्ट राईटर, आदि हो.मगर, एक वक़्त ऐसा था, जब सिनेमा जगत में अभिनेत्रियों के अलावा महिलाओं का अन्य कार्यों में भागीदारी न के बराबर थी. ऐसे में इस धारणा को फातिमा बेगम ने तोड़ा. उन्होंने भारतीय सिनेमा को अपना बहुमूल्य योगदान दिया. उन्होंने फिल्मों में अभिनय के अलावा निर्देशक और राईटर के तौर पर भी अपना दमखम दिखाया.

उस दौरान उन्होंने भारतीय सिनेमा जगत के कई बड़े नामों के साथ काम किया था. उनके प्रवेश के बाद अन्य महिलाओं के लिए भी फिल्म उद्योग के रास्ते आसानी से खुल गए. आज फातिमा बेगम को भारतीय सिनेमा जगत की पहली महिला निदेशक के तौर पर याद किया जाता है। फातिमा बेगम चलचित्र जगत की पहली महिला निदेशक थी। स्वयं के प्रोडक्शन हाउस के फातिमा फिल्म्स के बैनर तले फातिमा बेगम ने 1926 में बुलबुल-ए-पेरिस्तान का निर्देशन किया। 1926 में, उसने फातिमा फिल्म्स की स्थापना की, जिसे बाद में 1928 में विक्टोरिया-फातिमा फिल्म्स के नाम से जाना जाने लगा। इस फिल्म में विदेशी तकनीक में इस्तेमाल होने वाले स्पेशल इफेक्ट का प्रयोग किया गया था. यह एक बड़ी बजट की मूवी थी. आकड़ों की माने तो इस फिल्म को बनाने में कई लाख रुपए खर्च हो गए थे। फातिमा बेगम ने अदाकारी के साथ निर्देशक के रूप में भी कई सुपर हिट फिल्में दी। उनका जन्म 1892 और मृत्यु 1983 में हुई। फातिमा बेगम का जन्म भारत में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। मानना था कि फातिमा बेगम का नवाब सिदी इब्राहिम मोहम्मद यकुत खान तृतीय से विवाह हुआ था।

हालांकि, नवाब और फातिमा बाई के बीच होने वाली शादी या अनुबंध का, या नवाब की तरफ से उसके किसी भी बच्चे को अपना मानने का कोई रिकॉर्ड नहीं है, यह मुस्लिम परिवार कानून में कानूनी पितृत्व के लिए एक शर्त है। वह मूक सुपरस्टार जुबैदा, सुल्ताना और शहजादी की मां थी। वह हुमायूं धनराजगीर और दुबेरेश्वर धनराजगीर, और जुबेदा और हैदराबाद के महाराजा नरसिंहुर धनराजगीर के बेटे और बेटी और सुल्ताना और कराची के एक प्रमुख व्यापारी सेठ रजाक की बेटी जामिला रजाक की दादी भी थी। उसने उर्दू

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