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आज फिर एक लड़की का बलात्कार का शिकार हुई, और उसे दर्दनाक मृत्यु दी गई। आज फिर भारतीय समाज हाथ में मोमबत्ती के कर सड़क से के कर चौराहे पर प्रदर्शन करने को आमादा है। समाज में उबाल है,बलात्कारियों को फांसी दो,गोली मारी दो, आग लगा दो, आदि आदि। पर क्या सच में हमारा समाज यह सब देखने के लिए और सहने के लिए तैयार है?
क्या हमारा समाज अपने पुत्र प्रेम को चौराहों पर दम तोड़ते हुए देखने को तैयार है? आज जोश में उत्तर भले ही हां का निकल आए। पर असलियत में यह संभव नहीं। इस घटना के तुरंत बाद घरों में लड़कियों के ऊपर और बंदिशों को लाद दिया गया होगा। उन्हें फिर सिखाया गया होगा कि क्या करना है, क्या पहनना है, कहा जाना है, या ज्यादा बेहतर नहीं ही जाना है कहीं।
पर कितने परिवारों ने अपने लडको को बताया होगा … की यह नहीं करना है, ये कृत्य इंसान की नहीं जानवर की निशानी है.!! ऐसी सोच पशुता है!!! मुझे लगता है एक भी नहीं…. और यह सत्य भी है।
हमारा समाज पुत्र प्रेम व पितृ सत्ता का आदि है। उसे हमेशा पौरुष रूपी ताकत और स्त्रीत्व रूपी कमजोरी का पाठ पढ़ाया गया है। उस यही पढ़ाया गया है कि हाथ में चूड़ी कमजोर की निशानी है और कमजोर को जब चाहे दबाया जाता है। हम अपनी बेटी को सशक्त तो बनाना चाहते है परन्तु क्या अपने बेटों को कभी सिखाया है कि शशक्त बेटी के साथ कैसे रहे.?
हम चाहते है कि हमारी बेटी पढ़े और कंधों से कंधा मिला कर बेटों के साथ चले। हम लड़की पर रोक लगाना जानते हैं। हम खाप पंचायत बैठा लेंगे उसमे जींस से के कर मोबाइल सब पर पाबंदी लगा देंगे। हमारा समाज आधुनिक नारी तो चाहता है परन्तु आधुनिक नारी के साथ कैसे रहें यह नहीं जानना चाहता है।
मेरी ये बातें सुन कुछ बुद्धिजीवी तत्काल झूठे रेप केस व पुरुष प्रताड़ना की खबरें सुनाने लगेंगे। तो क्या juvenile एक्ट क्या दुरुपयोग नहीं हो रहा.? भारतीय कानून व्यवस्था में हर कानून का तोड़ उपलब्ध है। हमे नारी सशक्तिकरण के ज्यादा पुरुष मानसिक संतुलन और अमुलचूल सामाजिक बदलाव की आवश्यकता है।
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं, इससे संस्थान का कोई लेना-देना नहीं है।
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