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नर रूपी भेड़िये की फितरत है यह तो

अकेली जिंदगी की दास्तां
अकेली जिंदगी की दास्तां
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दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना के बाद आपका, मेरा, हम सबका गुस्सा पूरे ऊफान पर था. पर ना जाने वह सारा आक्रोश कहां खो गया. घटना को अभी बस एक महीना ही तो हुआ है लेकिन उस बेचारी के दर्द को हम सभी ने भुला दिया.


अरे पुरुषों की तो फितरत में ही है महिलाओं को अपने हाथ की कठपुतली बनाकर रखना, उसे एक वस्तु की भांति समझना और मनचाहे ढंग से उसके साथ बर्ताव करना. लेकिन महिलाएं जो अब खुद को जागरुक और सशक्त कहलवाती नहीं थकतीं उन्हें क्या हो गया, वह कैसे भूल गईं दामिनी के दर्द को?


उसके शरीर को नोच-नोच कर खाने वाले नर के रूप में उन भेड़ियों को आज हम सभी ने भुला दिया है. वैसे तो यह बात भी सच है कि दिल्ली की दामिनी के साथ जो भी हुआ वह कोई पहली दफा नहीं था. कई बार ऐसी घटनाएं सुनने को मिलती हैं जिनके अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष अगर अपनी फितरत दिखाने को आए तो वह इंसानियत की सारी हदें, मर्यादाएं पार कर बैठता है.


आज से नहीं बल्कि सदियों से यह तो भारतीय समाज की जड़ों को खोखला करती एक ऐसी मानसिकता है जो महिलाओं को कभी खुलकर सांस तक नहीं लेने देती. आखिर कब तक मैं और मेरे जैसी हजारों बेगुनाह उस गलती की सजा भुगतती रहेंगी जो हमने कभी की ही नहीं?


समाज का नजरिया औरतों के लिए कभी भी सम्मानजनक नहीं रहा. उसे हर मोड़ पर, हर घड़ी बस औरत होने का अहसास करवाया जाता है. मर्दवादी दृष्टिकोण में महिलाएं मात्र एक भोग्या हैं और हम चाहें भी तो इस तथ्य को नकार नहीं सकते. समाज, परिवार, शिक्षा सब कुछ धरी की धरी रह जाती है जब बात महिला और उसके सम्मान से जुड़ी होती है. कोई भी एक ऐसा नहीं है जो अपने गुनाह को कबूल करे कि हां, हमारी गलती की वजह से आज महिलाओं की ऐसी हालत है.


समाज हमारे कपड़ों को ताने मारता है, राजनीति में बैठे लोग मेरे रहन-सहन को देखकर नाक-मुंह सिकोड़ते रहते हैं, कोई क्यों हमारे दर्द को नहीं समझता?


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