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जब आपने सोच पर काबू कर लिया तो बदलाव की गुंजाइश कहां !!

अकेली जिंदगी की दास्तां
अकेली जिंदगी की दास्तां
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अभी हाल ही में जंक्शन प्लेटफॉर्म पर एक लेखिका (आदरणीया तमन्ना जी) ने प्रेम विवाह में पुरुष और नारी को होने वाले फायदे-नुकसान पर चर्चा करते हुए लिखा कि प्रेम विवाह में हमेशा फायदा स्त्री को मिलता है और पुरुष शोषित की भूमिका में आ जाते हैं. यानि सम्मानित लेखिका का मानना है कि नारी जब प्रेम में पड़ती है तो केवल अपने लाभ के लिए और आखिरकार पुरुष को अपना मोहरा बना कर ही उसे चैन मिलता है. महोदया ने तो यहॉ तक लिख डाला कि इन सब के पीछे नारी की सोची-समझी रणनीति होती है और यही कारण है समस्त आधुनिक नारियां प्रेम विवाह को वरीयता दे रही हैं क्यूंकि ऐसा करके वे पुरुष पर अपना शासन आसानी से चला सकती हैं.


यकीनन लेखिका का ये दावा अपने आपमें जितना हास्यास्पद है उतना ही ये भी दर्शाता है कि नारी हजारों वर्षों से चली आ रही पुरुष प्रभाव के वशीभूत होकर ही आगे की कोई रणनीति बना सकती है या किसी विचार को जन्म दे सकती है. हजारों वर्षों से दासता की अभिशप्तता से ग्रस्त नारी से इससे ज्यादा अपेक्षा भी क्या की जा सकती है! प्रेम संबंध हो या विवाह या कोई भी सामाजिक रिश्ता, सभी में एक बात बिलकुल समान रूप से पाई जाती है और वह है पुरुषवादी अहं और वर्चस्व की भावना. स्त्री के सभी रूपों में पुरुष प्रभाव हमेशा मौजूद रहता आया है और नारी के नियति का निर्धारण भी यही करता रहा है. हजारों वर्षों से नारी को कभी भी एक बिलकुल जीवंत जीवधारी के रूप में नहीं देखा गया तद्नुरूप उनके साथ व्यवहार भी किसी अधीनस्थ की भांति ही होता रहा है.


नारी पर पुरुष वर्चस्व की बात काल-स्थान से परे हर राष्ट्र और समाज में मौजूद रही है. कुछ समाजों ने थोड़ी चतुराई का प्रदर्शन करते हुए इसे इस तरह प्रस्तुत किया ताकि नारियों को अपने दास होने का कम से कम एहसास हो और वे विद्रोह ना करें जबकि कुछ समुदायों ने नारी के साथ कोई मुरौव्वत ना बरतते हुए उन्हें पूरी तरह गुलाम बनाए रखने में ही शान समझी. परिणामतः हालात हमेशा एक से रहे और परतंत्रता की बेड़ियां नारी के ईर्द-गिर्द लिपटी रहीं.


अब जबकि कुछ नारियों ने आगे बढ़कर देश और दुनिया की तकदीर बदलने की ठानी तो उसकी राह में उसी पुरुषवादी दासता में पली-बढ़ी नारियां ही सबसे बड़ी बाधा बन कर सामने आ रही हैं. अकसर बात की जाती है कि नारी को सब कुछ करने का अधिकार है लेकिन इसके साथ ही कुछ बेहद जरूरी शर्तें भी जोड़ दी जाती है, जैसे नारी को मर्यादित आचरण करना चाहिए, संयमित व्यवहार रखना चाहिए, समाज के मानदंडों के अनुरूप चलना चाहिए………..आदि. और आप जानते ही हैं कि इन लच्छेदार शब्दों के आशय क्या हैं. यानि नारी को हमेशा ये याद रखना होगा कि उसकी प्रगति तभी स्वीकार्य होगी जबकि वह पुरुषवादी व्यवस्था को चुनौती नहीं देती. यदि कभी भी उसने इस सीमा रेखा को पार करने का दुस्साहस किया तो मर्दवादी समाज उसे उखाड़ फेंकेगा.


पुरुष समाज के इस गहरे षड़यंत्र को समझ पाना भोली-भाली महिलाओं के वश में कहां. वे तो बस थोड़ी सी आजादी के बदले अपना सब कुछ दांव पर लगा बैठी हैं………एक छ्द्म आजादी, पुरुष द्वारा प्रदत्त आजादी……..जो उन्हें अपनी सोच, अपनी रचनात्मकता को बंधक रखने के एवज में मिलती है. यही कारण है कि आज जब कुछ बोधयुक्त नारियों द्वारा समस्त नारी जाति के उद्धार की बात की जाती है तो उनकी बात का सबसे पहला विरोध नारियों की ओर से ही उठता है. ऐसे में स्वाभाविक है मर्द समाज आखिर अपने बनाए इस मकड़जाल की सफलता को देखकर क्यूं नहीं खुश होगा?


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