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‘घर का बुढ़ा हूँ इसलिये सिर्फ बड़ा मान लिया ।
दधीची की हड्डी की ताकत को घरवालों ने जान लिया ।
बूढे की लाठी जो बनते सबने पल्ला झाड़ लिया ।
प्रेमचन्द की ‘बुडी काकी ‘ जैसा बूढे को मान लिया’ ।
घर का बुढ़ा हूँ इसलिए सिर्फ बड़ा मान लिया………..(1)
‘सदर द्वार पर खाट डालकर – चौकीदार बना दिया ।
घर से बाहर ‘बला’ टली इस तत्थ को पहचान लिया ।
खांसी खकार कराहाट से मुक्ति – मार्ग जान लिया ।
सेवा टहल से घरवालों ने अपना मुख मोड़ लिया’|
घर का बुढ़ा हूँ इसलिए सिर्फ बड़ा मान लिया………..(2)
‘बारिस की फुआरों ने द्वार पड़ी खटीया को पहचान लिया ।
नही दिखाई देता छाता-छत टपकती ने परेशान किया ।
बादल गरजे बिजली चमके पुरवाई ने कंपकपा दिया ।
कठिन डगर है, बुढापे की मन – ही – मन यह जान लिया’ ।
घर का बुढ़ा हूँ इसलिए सिर्फ बड़ा मान लिया………..(3)
‘शरद ऋतू बेहाल बुढापा – कोहरे ने ढाँप लिया ।
सिरहाने रखे कम्बल को रजाई ऊपर डाल लिया ।
जोर लगा के ख़ासी उठती – मुहं में अदरक का टुकड़ा डाल लिया ।
बुढ़े की खासी को हांसी – घरवालो ने जान लिया ।
घर का बुढ़ा हूँ इसलिए सिर्फ बड़ा मान लिया………..(4)
नगरी-नगरी द्वारे – द्वारे घूम के हमने देख लिया ।
द्वार पड़ी बुढ़े की खटीया – कोंतुहल वश पूछ लिया ।
कृषय काया बूढी खाल बन रही है, घर-घर की ढाल ।
बेहाल बुढापा रोया मन – अरमानों को जान लिया ।
घर का बुढ़ा हूँ इसलिए सिर्फ बड़ा मान लिया………..(5)
लेखक डॉo हिमांशु शर्मा(आगोश )
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