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फच्च ….. !!!!!!!! मैं चिहुंक उठा….. यह गाढे लाल महावरी रंग की चोट थी । रंग की एक मोटी धार शिखा से उतरकर गर्दन के सहारे रीढ़ को झुरझुराते हुए तेजी से तलवों तक पहुंच गई। कई धारायें कानों के किनारे से उतर कर कंधों और कमर में खो गईं जबकि कुछ छोटी रंग सरितायें आंखों में उतरने को बेताब थीं।….. किसी तजुर्बेकार रंगबाज़ का वार था यह। अचूक निशाना, चौंका देने वाली चोट और पूरा रंग शरीर पर। … इस औचक अभिषेक ने दूबर कर दिया था। अचानक स्वर गूंजा.. काए लला…. बड़े आए … कह रहे थे गुलाल को टीका लगावैं…का पूजा होय रही है इहां…..अरे जौ तो होरी को खेल है…. रंग है रंग… ला री तो एक बाल्टा और पियरो वालो….. छुड़इयें तौ सब गुमान छुट जइये। ( कह रहे थे गुलाल का टीका लगायें। यहां पूजा नहीं हो रही है। रंग का खेल है। पीला वाला रंग डालो तो जरा। जब रंग छुड़ायेंगे तो सब गर्व भी छूट जाएगा।) ….
भरपूर होली और जबर्दस्त ठिठोली।….. बोर कर और झकझोर कर रंगबाज अंतर्धान हो गईं थी। घनानंद का एक पुराना पद अचानक सामने खड़ा हो गया ….
पकरि बस कीने री नँदलाल ।
काजर दियौ खिलार राधिका, मुख सों मसलि गुलाल ॥
चपल चलन कों अति ही अरबर, छूटि न सके प्रेम के जाल ।
सूधे किये बंक ब्रजमोहन, ’आनँदघन’ रस-ख्याल ॥
सूधे तो ही गए थे हम, होली से ….मगर उससे भी ज्यादा रंगबाज की ठिठोली से।
खेल.!!!!…. रंग.!!!… गुमान !!!!….. शब्द मंजीरे के तरह कानों में बजने लगे।
…..खेल
होरी…. ?? खेल ?? …. लला फिर आइयो खेलन होरी…. !! फागुन के दिन चार होरी खेल मना रे!! खेलत फाग सुहाग भरी…!! होरी खेलैं रघुवीरा …!! खेल….. होरी…. होरी …खेल ????? …. मेरे दिमाग में गुलाल के बम (इस साल बाजार में गुलाल बम आए है) फूटने लगे। कौन भकुआ कहता है कि होरी पर्व है । अरे, न तो दीपावली जैसा व्यक्तिगत समृद्धि का दर्प और न रक्षा बंधन जैसी नियमबंधी शास्त्रीय पवित्रता।…. फिर काहे का पर्व ? होली त्योहार परिवार सबसे खिलंदड़ और उत्श्रंखल सदस्य है। बिंदास, बेलौस …. वह सब कुछ कर गुजरने वाला जो वर्जित है और वह भी गली चौराहे व बीच सड़क पर … होली की पूजा भी क्या ?….गालियों के मंत्र हैं, रंग अबीर से लेकर कीचड़ गोबर तक की आहुतियां हैं और वर्जनाओं से मुक्ति का फलित !!
करेंगे ऐसी पूजा ?? नहीं न ??
नाहक झंझट में कयों पड़ते हैं, इसे खेल ही मानिये…. इसी में कोई कुछ भी मान सकता है, मांग सकता है और कह सकता है।….. ईसुरी मेरा पीछा नहीं छोड़ते ….. उनका लुच्चा फगवारा तो सड़क चलते पता नहीं क्या क्या मांग लेता है।
चूमा मांग लेत गैलारो
मों हम खों न टारो
आदर भाव जेइ सब जानत मन रैजात हमारो
ईसुर मांगन आए दौरे , दरस दच्छिना डारो
सो…. होली मनाने वाले मूरख…. खेलने वाले काबिल !!
…….रंग
झर…र…..र…. यह पिचकारी की मार थी…. कुछ दूर से … मगर बचते बचाते बसंती बौछार आधा हिस्सा भिगो ही गई।
रंग है रंग … ईसुरी ने छोड़ा तो रंगबाज की ठिठोली ने फिर धर पकड़ा।
फागुन के लाल और बसंती प्रतिनिधियों ने लपक लिया था। प्रकृति की मूल हरीतिमा पर फागुन इन्हीं रंगों ठुमक रहा था। सेमल पलाश लाल…. गुड़हल गुलाब लाल… भोर का सूरज लाल… सिंदूर सुहाग लाल और होली पर गाल लाल। …. कोई कान में बोला … भूल गए क्या कि अनुराग लाल और वृंदावन के रसिया का राग भी लाल….
मैंने गलती मानने के लिए कान पकड़ा तो महसूस हुआ कान की कोरों से बहा लाल महावरी अब धूप में चटखने लगा था मगर ताजा बसंती अभी गीला था। …. सरसों वाला बसंती !! अमलतास वाला बसंती !! बौराने वाला बसंती !! बलि-बलि जाने वाला बसंती!! क्या कहने इसके ?? जिसमें मिला दो उसी के जैसा। मनोविज्ञान यूं ही इसे सहजता का रंग नहीं कहता है। सहजता जो कि उल्लास की सहोदर है। लेकिन यह तो पकहर होने का रंग भी है ??
मगर यह क्या ?? मैं चौक उठा! महावरी छाप पर बसंती हस्ताक्षर !!.. दोनों मिलकर एक नया दिव्य रंग बना रहे थे !! ….. गैरिक !!!!! ….मेरा.सफेद कुर्ता सकारथ हो गया था।
अचानक कोई गा उठा …..
अबीर-कुमकुमा केसरि लैकै, चोबा की बहु कींच मचाए ॥
जिहिं जानेतिहिं पकरि नँचाए, सरबस फगुवा दै मुकराए ।
कोई बोला ….रंग है रंग ……जो बूड़े सो ऊबरे !!!!!
… गुमान
गुलाल का यह बादल ठीक मेरे सर पर फटा था। गुलाल छंटा तो दिखा कि होरी के मदमाते , सब एक जैसे थे। …. कि होली से बड़ा लेवलर (leveler) और कौन है। सबको पीट पाट कर, रंग पोत कर एक सार कर दिया। ….कार वाला हो या बेकार वाला, मजूरा हो या मालिक, अफसर हो या नौकर …. हर तरफ सबको खुद के जैसा और खुद को सबके जैसा बनाने की होड। अरे, यह तो सब कुछ हार जाने की होड़ है। …. कुछ क्षण के लिए … कुछ न रह जाने की होड़। मानो कि पूर्ण होने के लिए अकिंचन होने की शिक्षा।
पूर्ण कौन ??…
माधव और कौन ??
लेकिन कैसे ??
इसलिए क्यों कि ….. ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भर छाछ पर नाच नचावै….
चीर चोरी से लेकर चित्त चोरी तक और छेड़छाड़ से लेकर प्रगाढ़ निर्वेद तक माधव पूर्ण हैं। वह छछिया भर छाछ पर नाच सकते हैं। ….. अर्थात अकिंचन पर मुग्ध…. बडा साहस चाहिए…. छछिया भर छाछ पर नाचने के लिए। बड़ा कलेजा चाहिए….खुलने, खेलने व फूट पड़ने के लिए।
…. छुड़इयें तौ सब गुमान छुट जइये…. रंगबाज की ठिठोली याद गई।
तो इसी गुमान के छूटने की बात थी। …. कुछ होने के गुमान की। अब समझा कि वह निर्बंध होने का आवाहन था, गर्व मुक्त होने की ललकार थी। कृत्रिमता से किनारा करने की प्रेरणा थी।…..
नल के नीचे बैठा हूं।…. गुमान छुड़ाने की कसरत जारी है। …. अब होली का होलक शांत है।…. मन बरबस गुनगुना उठा है…..
धोय धोयहारी पदमाकर तिहारी सौँह, अब तो उपाय एकौ चित्त मे चढै नहीँ ।
कैसी करूँ कहाँजाऊँ कासे कहौँ कौन सुनै, कोऊ तो निकारो जासोँ दरद बढै नहीँ ।
एरी! मेरी बीरजैसे तैसे इन आँखिन सोँ, कढिगो अबीर पै अहीर को कढै नहीँ ।
…कयों कढ़े यह अहीर को …किसी की भी आंखिन से ??जरुरत भी क्या है ??
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