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वैशाखनंदन !!!

SATORI
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आओ, आओ वैशाखनंदन. !! यह खरखराता स्वर संस्कृत वाले गुरु जी का था। जीभ और दांतों के बीच कोटर में पान की पीक को संभालते हुए बोलने का यह अद्भुत एडवेंचर और कोई कर ही नहीं सकता था। …….. पसीना पोंछ्ता गोल मटोल गदबदा गोलू कमरे में प्रवेश कर रहा था। गुरु जी का तीर निशाने लगा था। स्टाफ रुम में कई होठों से फिस्‍स वाली हंसी निकल गई मगर गोलू लजा गया। मानो उसे प्रशंसा का शीतल पेय मिल गया हो। वह भोला क्या जाने कि संस्कृतावतार गुरु जी के व्यंग्य बोल उसे देखकर ही फूटे थे। गर्मी में भी खुशहाल गोलू का दरअसल पाशवीकरण हो गया था। वह कुछ देर के लिए उपहास के चिरंतन प्रतीक एक चौपाये का पर्याय बन गया था। गुरु जी ने उसे गधा बना दिया था।

 

हंस तो मैं भी पड़ा था….. गुरु जी की व्यंग्योक्ति पर नहीं । बल्कि इस शब्द की विचित्रता पर। वैशाख में आनंद ? गुर्राते सूर्य के साथ आनंद, दहकते दिन और तपती रातों के बीच आनंद, दरकती भूमि और सूखते जलाशयों के बीच आनंद, शीतलता की शॉर्टेज के बीच आनंद, पूरी तरह लस्त पस्त और ध्वस्त करते मौसम के बीच आनंद..??…… शत प्रतिशत ऑक्सीमोरोन (oxymoron) है यह शब्द वैशाखनंदन ! यानी असंगत और विरोधाभासी। लेकिन इस घोर आनंद विरोधी मौसम की भरी दोपहर में मैंने भी कई बार रासभ (गधे का संस्कृत पर्याय) की रस भरी ढेंकार तो सुनी है और गोपाल प्रसाद व्यास की कविता भी स्मरण में आई है…….. मेरे प्यारे सुकुमार गधे, जग पड़ा दोपहरी में सुनकर मैं तेरी मधुर पुकार गधे। कितनी मीठी कितनी मादक स्वर ताल तान पर सधी हुई आती है ध्वनि जब गाते मुख ऊंचा कर आहें भरकर। तो हिल जाते छायावादी कवि की वीणा के तार गधे। …टर्र करने वाले (कनौजी में व्यंग्यात्मक टिप्पणी) करने वाले कहते हैं कि वैशाख में जब सूर्य के कोप के कारण घास की कमी से अन्य जीव झुरा (दुर्बल) जाते हैं तब गर्दभ राज मोटाते हैं। गर्दभ सूखती घास देखकर खुश हैं, मानते हैं उन्होंने सारी घास चर डाली है। इसी उल्लास में वह वैशाख की दोपहरी में अक्सर गा उठते हैं। उपहास के धुरंधरों की इस हास्यकथा पर गर्दभ की आधिकारिक टिप्पणी कभी नहीं मिली लेकिन बात सिर्फ हंसने वाली नहीं लगती। यह भी तो एक व्याख्या हो सकती है कि इस घोर श्रमजीवी, उपेक्षित, मूढ़ता के चिरंतन प्रतीक, सीधे सादे पशु को वर्ष की सबसे कठिन ऋतु में भी आनंदित होना आता है। है न ???

 

वैशाख में आनंद कठिन है लेकिन दुर्लभ नहीं। जगमोहन काका उमगते हुए घूम रहे हैं। न फटी धोती की चिंता न चीकट बनियान की। सन बर्न से चमकदार हुई त्वचा पर पसीने और भूसे की विचित्र चित्रकारी उन्हें एलियन बना रही है। ……पानी लगाते समय ट्यूबवेल वाले के नखरे, महंगी खाद, लगान का नोटिस, जमीन के अपने छोटे से टुकड़े के लिए आए लालच भरे प्रस्ताव, बिजली की कटौती, ट्रैक्टर वाले की चिरौरी, बैंक का पुराना कर्ज और पिछले साल में मंडी में मिला कड़वा अनुभव …… इस समय सब कुछ भूल गए हैं जगमोहन। पेट भर पानी भी नहीं पीते और दौड़ पड़ते हैं थ्रेशर की तरफ। सोने का एक एक दाना बटोर लेना चाहते हैं। बड़ी कठिनता से उगा है यह सोना !! ….. बाबा नागार्जुन कहते थे…फसल क्या है हाथों के स्पर्श की महिमा है रुपांतर है सूरज की किरणों का। जगमोहन को मालूम है कि अपने सोने को मंडी तक ले जाने के लिए उन्हें ट्रैक्टर वाले मिश्रा जी के पैर दबाने हैं। चौराहे का पुलिस वाला घुड़केगा। आढ़ती चिरौरी करायेगा। दलाल निचोड़ेगा। व्यापारी घटतौली करेगा। …….. लेकिन यह बाद में देखेंगे। इस समय तो आनंद का मौका है श्रम को फलते देखने महसूसने और हुलसने का मौका है। उनके खलिहान की गोद जो भर रही है। जगमोहन काका सचमुच वैशाखनंदन हैं। उनका आनंद प्रणम्य है।

 

अचानक मुझे कई वैशाखनंदन दिखने लगते हैं। चौराहे के मोड़ पर बन रहे नए होटल के श्रमिकों की बस्ती में उत्सव चल रहा है। कुछ दूर बन रहे फ्लाई ओवर में काम करने वाले मजदूर भी आए हैं। दिन भर धूप से दो दो हाथ कर तपे हुए शरीर कोई उत्सव मना रहे हैं। उत्सव बस उत्सव है वजह का क्या करना। सबको यह मालूम है कि इन मजदूरों की अगली पीढ़ी भी इस होटल का लौह द्वार पार नहीं कर पाएगी और वह उड्डाण पुल (मुंबई में फ्लाई ओवर का दिलचस्प मराठी अनुवाद) बनाने वाले कभी उस पर गाड़ी नहीं दौड़ायेंगे लेकिन क्या फर्क पड़ता है। आज का आनंद तो उनका है।

 

बिहू आनंदिया, बिहुर मउ मीठा हात, बिहुर बा लागी बिहुआ कोकेर, ………….. ढोल बांसुरी और तुरही की ध्वनि के साथ स्मृतियों में कोई कहीं बिहू गा उठा है। अरे यहां तो हर ओर रंगे बिरंग खिलखिलाते वैशाखनंदन हैं। रंगाली बिहू चल रहा है। असम के तीन बिहू पर्वों में सबसे बड़ा बिहू। इसे बोहाग बिहू भी बुलाते हैं। फसल कटी तो श्रम का फल मिला। कम या ज्यादा इसका हिसाब करने को तो पूरा साल पड़ा है। तत्काल तो बस बिहू आनंदिया है। निर्धनता और उपेक्षा के दर्द से किनारा करने का मौका। साढ़े तीन हजार साल पुरानी यह वैशाख आनंद कथा कभी खत्म नहीं होती। आरके ने परे आमार बिहू रे कथा। …. खत्म भी क्यों हो….?

 

लाओत्से कहता है कि यदि प्रसन्न होना है तो हो जाओ बस… (If you want to be happy, be!) ठीक ही तो है अगर आनंदित होना है तो क्या. वैशाख क्या जेठ? और फिर बसंत की मादक पवन, आमों के बौर पीली सरसों व फाग के रंग बीच आनंदित हुए तो क्या तीर मार लिया?? या सावन की पुरवाई और भादों के झकोरों के बीच झूम लिये तो कौन सा मेडल जीत लिया?? यह तो प्रकृति के आनंद पर्व हैं ही। हकड़ते सूर्य, तपती भूमि, चिरते गले और चटखते तालू के बीच अगर आनंदित हुए तब बनती है बात। वैशाख में आनंदित होना हिम्मत की बात है यह अभाव के बीच का उल्लास है। और जब कोई आनंदित होता है तो … When you are really happy, the birds chirp and the sun shines even on cold dark winter nights – and flower will bloom on barren land..(Grey Livingston) वैसे यह बात पश्चिम की है उनके लिए शरद सबसे विषम है जबकि हमारे लिए ग्रीष्म सबसे कठिन, सो इस उक्ति का हिंदुस्तानी मतलब यह कि तपता वैशाख भी ठंडा और मीठा है अगर भीतर आनंद है….. तो !!!

 

बहुत हो गई गधा पचीसी !!!……. गोलू शत प्रतिशत वैशाखनंदन है!!! उसे अभाव में हंसना और उल्लास बांटना आता है। वह हर व्यक्ति जो घोर विपरीत के बीच आनंदित हो लेता है वैशाखनंदन है। गुरु जी!! अगर वक्त मिले तो शब्द कोष में वैशाखनंदन का अर्थ बदलवा दीजियेगा। यह सकारात्मक शब्द है यह श्रमजीवी मनुष्य। और एक सीधे सादे, मेहनती व निरीह पशु दोनों के साथ भाषाई अन्याय करता है। मैं भी गरमी को बिसूरना छोड़ वैशाखनंदन बनने का प्रयास करने लगता हूं। आबिदा परवीन मस्त गा रही हैं।

 

मैं नाराये मस्ताना, मैं शोख ये रिंदाना।
मैं तश्ना कहां जाऊं, मैं तश्नाय …. मैं तश्ना कहां जाऊं ???
पीकर भी कहां जाना!!!!
मैं नाराये मस्ताना, मैं शोख ये रिंदाना।

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