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वो मासूम आँखें (लघु कथा)

Anuradha Dhyani
Anuradha Dhyani
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नींद तो मानो उड़ ही गयी थी मेरी , बार -बार उस छोटे से लड़के का चेहरा जो सामने आ रहा था. हम अपने काम से यात्रा पर थे और थकान मिटाने के लिए अपनी कार एक रेस्त्रां के आगे रोक दी. चाय पीने के लिए बाहर निकले ही थे कि मांगने वालों ने हमें घेर सा लिया .अब एक दो से ज्यादा क्या किसी को देते सो विनम्रता से बाकियों को मन कर दिया पर वो तो मानो पीछे ही लग गए थे. किसी तरह से उनसे पीछा छुड़ा कर अंदर पहुंचे और चाय -नाश्ता किया . बाहर निकल के कार के अंदर जाकर बैठ गयी तो एक छोटा लड़का सामने आ गया और कुछ कहने लगा .मन पहले से ही थोड़ा परेशान हो गया था तो इशारे से ही मना कर दिया. तभी बाकी लोग भी आ गए और वो लड़का अपनी टोकरी दिखा के जिद करने लगा -एक टोकरी ही खरीद लो . हमें नहीं चाहिए- कह कर, हम आगे निकल गए . बाद में पता चला कि टोकरी मात्र दस रूपये की थी जबकि वही हमने तिगुने दाम में कभी खरीदी थी. इससे ज्यादा रूपये तो मैंने भीख मांगने वालों को दे दिए थे. मन उदास हो गया था कि परिश्रम करने वाले की बात मैंने सुनी भी नहीं .कितने प्रश्न सामने आ रहे थे. न जाने उसकी क्या मज़बूरी हो ..कितना भी सरकार कानून बनाये पर बाल मजदूरी का ही तो एक रूप था वो और उसमे भी हज़ारों रूपये अपने ऊपर खर्च करने वाले हम क्या दस रूपये की टोकरी लेके उसकी मदद नहीं कर सकते थे. शायद भिखारी हमें न घेरते तो मैं वो टोकरियाँ खरीद लेती और नयें साल में लोगों को भेंट कर देती पर जो हो न सका उसका अफ़सोस मन में बहुत हुआ और वो मासूम आखें बार- बार अभी भी सामने आ जाती है . उसने भीख की जगह श्रम को महत्व दिया पर हमने क्या भिक्षापन को ही बढ़ावा न दिया. आगे से ऐसा न हो इसका प्रयास ही अब करना है.

अनुराधा नौटियाल ध्यानी

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