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अभिलाषा

अनुभूति
अनुभूति
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अभिलाषा

हे अनन्त !

कराकर मुक्त ‘अन्त’ से,

खींच लो अपनी ओर.

ले   चलो   उस   छोर,

जहाँ अन्त का भय न हो,

आदि का विस्मय न हो.

हे ज्योतिपुंज !

कब    तक   रखोगे?

इस भयावह तिमिर में,

ले चलो उस शिविर में.

जहाँ प्रकाश ही प्रकाश हो,

चित्त न कभी उदास हो.

हे दिव्यरूप !

हटा दो मिथ्या का आवरण,

खिल जाए ज्ञान की धूप,

दिखा दो सत्य का रूप.

स्वयं को भूल जाऊँ,

तुम से एकरूप हो जाऊँ…

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