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आज की पीढ़ी महरूम है उस दुलार से,
जो मिल जाता था बरबस हमें दादी के प्यार से।
गर दूर भी रहें तो दिल में चेहरा से बसा रहता था
हमें हर घड़ी बस इतवार का इंतज़ार रहता था,
क्या पहना है,शक्ल का भी मुआयना किया है या नहीं
परवाह इसकी तनिक हमें नहीं होती थी,
दादी के मुरब्बे, अचार और गुड़ की तलब रहती थी,
उनके गले में लटकती वो अलमारी की चाभी
थी हम बच्चों को उनके साम्राज्य की याद दिलाती,
कंप्यूटर टेक्नोलॉजी से ज़रा दूर सी थीं
पर बासी खाने में भी अमृत सा भर देती थीं
ज़बान उनकी थी गुड़ की डली
गीत,सोहर,कविताएँ उनकी गोद में पलीं
काहानियों का तो अम्बार सा लग जाता था
रात में जब हम छत पर सोने जाते थे,
सब बच्चों की जगह सुनिश्चित थी
ममता भरी उनकी बाहों की महक ही बिस्तर की नरमी थी।
अब वो ज़माना खो गया,कहीं दूर छूट सा गया
लैपटॉप और टेबलेट में जुटे हैं बच्चे
दादी किटी पार्टीज करती हैं
आज कल के बच्चे बेशक हैं महरूम उस दुलार से
जो हमे बरबस मिल जाता था दादी के प्यार से।
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