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कॉरपोरेट बालाएं, कॉरपोरेट बॉस, मामला बिंदास

ये जहां...
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बाला के लक्षण कैसे भी हों। अगर बॉस के इर्दगिर्द घूमना सीख लिया। तो समझिए बॉस भी खुश और लड़की भी। तरक्की पसंद बालाए, और बाला पसंद बॉस कॉरपोरेट युग के आदर्श हैं। बाला काम और कपड़ों के प्रति संजीदा न हों, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर बॉस के इर्दगिर्द लट्टू सी घूमना जानती हैं, तो उनमें न कोई कमी न कोई खामी। इसी उद्योग में कुछ दूसरी बालाएं भी हैं। पर कम। जो स्वभाव से उग्र हैं। उनमें ज़िम्मेदारियां निभाने की आग है। कपड़े भी शालीन हैं। ज़ुबान से काम की तेजी झलकती है। लेकिन बॉस के केबिन से दूर ही रहती हैं। तो ऐसी लड़कियां न अपने बॉस के लिए खुशी का कारण बनती हैं। और न ही उनकी भूख मिटाने वाला निवाला। कॉरपोरेट में काम करते हुए भी ये कॉरपोरेट की काली नीतियों से दूर ही रहती हैं। चमचा नहीं बन सकतीं, लट्टू होकर नहीं घूम सकतीं। ज़िम्मेदारी निभाने से मतलब है। ड्यूटी पर आती हैं। ड्यूटी पर जाती हैं। और न ही किसी से फालतू बात। बालाओं को आज के युग में तरक्की बेहद पसंद है। रास्ता आसान हो तो कुछ भी कर गुज़रने को तैयार, बॉस की बीवी नहीं तो घर पर बर्तन भी मांझ सकती हैं। और आवश्यकता पड़ने पर बीवी की हक़ अदायगी भी कर सकती हैं। सहमति जब स्वतंत्र हो, तो हर रिश्ता वाजिब। दोष न बाला का है, न ही बॉस का है। वक्त की जरुरतों ने गैरतमंदों को भी बेगैरत बना दिया। अब आइना देख कर भी उन्हें लज्जा नहीं आती । क्योंकि लज्जा रुपी विचार को वो कॉरपोरेट की काली दुनिया में गुमा चुके हैं। बाला के लिए बॉस जरुरी, और बॉस के लिए कई बालाएं। चलिए अगर इस नीति से जगत का भला हो तो कुछ ठीक लग भी सकता है। लेकिन जब रिश्ते निजी हितों के लिए ही बने हों, तो प्रबंधन के साथ तो ये धोखे जैसा ही है। बॉस अपने ओहदे और योग्यता का फायदा उठाता है। और बालाएं अपनी अदाओं का । ये बात अलग है कि मटकने वाली बालाओं से बॉस हुनर की तमन्ना कभी नहीं पालता। न ही कभी काम में बरती गई कोताही पर उंगलियां उठाता। उसके सामने कौन काम कर रही है, और कौन काम नहीं कर रही, ये सिर्फ इस पर निर्भर है, कि बाला ने बॉस को कितनी लिफ्ट दी। बॉस तय करते हैं, फलानी हुनरमंदर है, फलानी काम में सच्ची है, फलामी तुमसे बेहतर है और तुम ये क्या करती हो। तुम्हें काम नहीं आता । जाहिल कहीं की (ये उनसे जो समझौतावादी नहीं)। सारी बातें दरकिनार कि जो जाहिल है असल में वही उद्योग को लाभ पहुंचा रही है। नज़र अपनी हो और चश्मा दूसरों का तो सिर्फ बुराई ही नज़र आती है। इठलाने की अदा हर बाला में नहीं होती। समझौते की अदा हर किसी के खून में नहीं होती। कुछ तो ईमानदार भी हैं, जिन्हें देखकर बॉस काला चश्मा चढ़ा लेते हैं। ये बात अलग है कि इठलाने और बलखाने वालियों के सामने वो पूरे नंगे हो जाते हैं। कॉरपोरेट बालाएं, कॉरपोरेट बॉस, मामला बिंदास। इसी युग में हमें जीना है। धिक्कार है ऐसी नीतियों पर । धिक्कार है ऐसी आदतों पर । कब तक इस कॉपोरेट की चकाचौंध में बालाएं अपना शोषण कराती रहेंगीं। कब तक बॉस मजबूरियों का फायदा उठाएंगे। क्यों नहीं योग्यता का सही आंकलन उनके लिए है, जो काम करना जानते हैं। क्या सिर्फ ठिठोलियों से काम चलता है। क्या सिर्फ अदाएं दिखाने से संस्थान चलता है। अपने चश्मे से भी तो आंकिये समाज को । फिर देखिए दुनिया में कितने दीन दुखी हैं। कितने हुनरमंद हैं। कितने लोग सच्चे हैं। कितने ऐसे लोग हैं जिनसे आप खुद प्रेरणा ले सकते हैं।

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