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रेडियो नहीं रोटी (सरकारी रहम से रोटी की जुगाड़)

ये जहां...
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सुशासन बाबू संचार क्रांति हमें क्या देगी ? अब ऐसा एक सवाल बिहार के महादलित अपने नेता नीतीश कुमार से पूछ रहे हैं। आपके दिमाग में सवाल जरुर आया होगा कि सिर्फ महादलित ही ऐसा क्यों सोच रहे होंगे ? तो इसका जवाब है कि बिहार सरकार ने दूसरे राज्यों की तरह उनके उद्धार के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं। मसलन कई तरीकों के रंग बिरंगे कार्डों की योजनाएं महादलितों के सपनों की दुनिया को रंगीन करने के लिए रजिस्टरों में दर्ज कराई गईं हैं।लेकिन ऐसे लाल नीले पीले कार्डों से किसी की दुनिया में रंग भरे नहीं जा सकते। वो भी तब तक, जब तक कि किसी योजना को धरातल पर न उतार दिया गया हो। ये बात भी अलग है कि धरातल पर उतरने के बाद भी ये योजनाएं आज बिचौलियों की भेंट चढ़ती जा रही हैं।

बिहार महादलित विकास मिशन करीब 89 लाख 90 हज़ार महादलितों का उद्धार करने के लिए बिहार के 37 ज़िलों में काम कर रहा है। सूबे की 21 महादलित जातियों पर किया जाने वाले दफ्तरी कार्य बेहद सराहनीय है। इन सभी महादलितों के लिए सरकार ने कुछ न कुछ सोच रखा है। एक ऐसी ही योजना है  महादलितों को रेडियो मुहैया कराने की। महादलितों को मुख्यधारा में लाने एवम् प्रभावी जीवन दृष्टि बनाने के लिए इस योजना के तहत प्रत्येक परिवार को रेडियो खरीदने के लिए लिए 400/- रु0 दिया गया। यहां सरकार का मकसद था कि सूबे के उन पिछड़े राज्यों तक संचार क्रांति को पहुंचाया जाए। जहां अब तक विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है। कम से कम महादलित इस बात पर तो इतरा ही सकें कि उनके घर में संचार क्रांति के नाम पर एक रेडियो सरकार द्वारा पहुंचा दिया गया है।

रेडियो की इसी योजना के साथ महादलितों की पीर शुरु होती है। आपको यकीन तो न होगा कि कोई सरकारी योजना किसी के लिए पीर कैसे बन सकती है? लेकिन ये कड़वे घूंट की ऐसी सच्चाई है जिसे महादलित हर रात पिया करते हैं। दरअसल नीतीश सरकार ने जिन महादलितों को रेडियो बांटे हैं उन महादलितों के पास इतने भी पैसे नहीं हैं कि वे अपनी दिन भर की रोटी की जुगाड़ कर सके।

दिन भर अपने हाड़ को गलाते महादलित जैसे तैसे अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं। ऐसी स्थिति में जब बात रेडियो में सेल डालने की आती है। तो जिनके रेडियो के सेल जवाब दे गए । उन रेडियो में सेल आज तक पड़े ही नहीं। इसलिए रेडियो बेंचकर लोग रोटी की जुगाड़ कर रहे हैं। जो रेडियो सेलविहीन हो चुका है वो बच्चों के हाथ में महज़ एक खिलौने की तरह शोभा बढ़ाता दिखाई दे रहा है। यहां भी कहानी में एक पेंच है, जो रेडियो सरकार ने महादलितों के बीच बंटवाए हैं वो आधुनिकता के हिसाब से बेहद भारी और उनका मेंटिनेंस बहुत ज्यादा है। हर महीने उन रेडियो में तीस रुपए के सेल लगाने पड़ते हैं। महादलितों के लिए तीस रुपए की ये राशि एक दिन की रोटी की व्यवस्था कर देती है। इस लिहाज़ से रेडियो की ये योजना महादलितों के लिए अभिषाप जैसी बन गई है।

हो सकता है कि जब आपकी ये लुभावनी योजना महादलितों तक पहुंची हो तो सभी के चेहरों पर खुशी का माहौल दिखा हो। लेकिन नीतीश जी आज आपका सरकारी रहम इन महादलितों के काम नहीं आ रहा है। भूखा पेट कोई भजन नहीं सुनना चाहता। जब महादलितों को भूख लगेगी तो संचार क्रांति काम नहीं आएगी। वैसे भी जिस संचार क्रांति को आपने रेडियो के ज़रिए गांव गावं तक पहुंचाने की कोशिश की है वो संचार क्रांति महादलितों को बहुत महंगी पड़ रही है। एक महादलित औरत से जब रेडियो के बारे में कुछ पूछा जाता है। तो उसका पहला जवाब यही होता है कि रोटी की व्यवस्था करें, या रेडियो की मरम्मत कराएं। ऐसी स्थिति बेहद भयानक है। कि जिस राज्य में मुफलिसों पर सरकारें रहम करती हैं। उसी रहम को बेंचकर वो लोग अपने लिए एक दो दिन की रोटी का इंतज़ाम कर लेते हैं।

बिहार के हाकिम आपको ये बात समझनी होगी कि रेडियो से पेट नहीं भरता, अगर पेट किसी का भरना है तो उन्हें रोजगार देना होगा। ये हम नहीं वो लोग भी कह रहे हैं जिनकी ज़िंदगी अभावों के चलते जहन्नुम बन गई है। ये ठीक है कि आप (नीतीश) उनके बारे में सूचना क्रांति के नज़रिए से देखते हैं। लेकिन ऐसी सूचना क्रांति का कोई क्या खाक करेगा जब पेट फाकों को मजबूर होगा। हुजूर आप अपने सरकारी रहम की गत देखिए। सोचिए कि ये महादलित लोग आपके रहम को बेंचकर रोटी की जुगाड़ कर रहे हैं। बस इतना समझिए कि ये अपनी शिकायतें आप तक कभी नहीं पहुंचा सकेंगे। हम तो बस एक ज़रिया भर हैं। तय आपको करना है कि हाकिम अपनी रियाया को अब कितना करीब से जानेगा। क्योंकि ये बात याद रखिए लोग सरकारी रहम से रोटी की जुगाड़ कर रहे हैं।

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