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बदल गया बंगाल

paigam
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लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।
लंबे समय के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। जनता ने निजाम ही नहीं बदला बल्कि अपनी परंपरागत वामपंथी राजनीतिक सोच भी बदल दी। परिवर्तन की आंधी में वाममोर्चा का लाल दुर्ग जिस तरह कांप रहा था उससे उसके दरकने के संकेत तो लोकसभा चुनाव के बाद ही मिलने लगे थे लेकिन एकाएक वाममोर्चा का कुनबा तास के पत्ते की तरह बिखर जाएगा यह किसी को उम्मीद नहीं थी। बंगाल की उर्वर भूमि में प्रमोद दासगुप्ता(वामो के पहले चेयरमैन) और और ज्योति बसु ने वाममोर्चा का जो बीज बोया , पार्टी के साझा नेतृत्व ने जिस तरह उसको सींचा व ताकतवर विशाल बट वृक्ष के रूप में खड़ा किया वह एक मात्र ममता बनर्जी की आंधी में ढह गया। बंगाल की राजनीति में यह ऐतिहासिक परिवर्तन है, लेकिन सवाल यह है कि बंगाल की सजग, जागरूक और प्रबुद्ध जनता को इस तरह का साहसिक कदम उठाने में इतना वक्त क्यों लगा। 34 वर्षों तक बंगाल की एक पीढ़ी लाल झंडे का बर्चस्व स्वीकार करने के लिए मजबूर क्यों रही। अगर इतिहास सचमुच अपने आपको दोहराता है तो यह बंगाल के राजनीतिक परिवर्तन पर भी शत प्रतिशत लागू होता है। 70 के दशक में जिस कांग्रेस के आतंक से छूटकारा पाने के लिए बंगाल की जनता ने वाममोर्चा को जिताया और 1977 में ज्योति बसु को मुख्यमंत्री के रूप में सिर आंखों पर बिठाया उसी जनता ने 34 वर्ष बाद यदि वाममोर्चा को ठुकराया है तो निश्चय ही कोई न कोई आतंक व अत्याचार से छुटकारा पाने की कशमकश जनता में थी। ममता बनर्जी ने जनता की नब्ज को ज्योति बसु के समय में ही पहचान ली थी। 90 के दशक आते-आते माकपा के श्रमिक संगठन सीटू का जंगी श्रमिक आंदोलन शबाब पर पहुंच गया था। इस कारण अधिकांश कल कारखाने बंद होने लगे। परंपरात जूट, टेक्सटाइल और इंजीनियरिंग कारखानों के चिमनियों से धुंवा निकलना बंद हो गया। बेरोजगारी बढ़ती गई। बंगाल से पूंजी ही नहीं सस्ते श्रम का भी पलायन हुआ। कारखाने बंद होने से सीटू की चंदा उगाही प्रभावित हुई, सो आय के नये स्त्रोत तलाशने के लिए जमीन की खरीद बिक्री में मध्यस्थता से लेकर आम लोगों के नागरिक जीवन में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। राइटर्स बिल्डिंग में बैठक कर दिल्ली तक की राजनीति को प्रभावित करनेवाले ज्योति बसु राज्य की जर्जर औद्योगिक स्थिति को पटरी पर नहीं नहीं ला सके। सरकार की ओर से एक ही तर्क दिया जाता कि केंद्र की जनविरोधी श्रमिक नीतियों की वजह से पश्चिम बंगाल की औद्योगिक हालत खस्ता हुई। ममता बनर्जी ने वर्ष 2000 में ही राज्य की जनता की बेचैनी समझ ली थी और 2001 के विधानसभा चुनाव में नाऊ आर नेभर(अभी नहीं तो कभी नहीं) का नारा दिया। उस समय तत्कालीन माकपा राज्य सचिव अनिल विश्वास ने अपनी राजनीतिक सुझबूझ से ज्योति बसु को हटा कर बुद्धदेव भïट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना कर ममता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। श्री भïट्टाचार्य की बंगाल के सहित्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में पहले से पैठ थी। स्वच्छ छवि के बुद्धदेव से राज्य की जनता की उम्मीदें बंध गई और उनके नेतृत्व में वाममोर्चा को 2001 और 2006 में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई लेकिन सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विवाद ने उनकी छवि को धूमल कर दी। ममता ने भूमि अधिग्रहण को वामममोर्चा के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और जनता में एक-डेढ़ दशक पहले जो परिवर्तन की चाहत उभरी थी उसे उफान पर ला दिया। चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं को बेखौफ वोट डालने का सुअवसर प्रदान किया और जनता ने मौका मिलते ही वाममोर्चा की जर्जर ढांचे में अंतिम कील ठोक दिया। वाममोमोर्चा की करारी हार से बंगाल में कम्युनिस्टों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब देखना है कि बंगाल की जनता के साथ कामरेड फिर अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर पाते भी हैैं या नहीं।

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