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अर्थव्यवस्था पर जोखिम का भय और युवा

अवेयर
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शायद जोखिम का भय सताता है यूवओं को. यहां एक अलग जोखिम की बात हो रही है. उस जोखिम की जो किसी संगठन या व्यवसाय को शुरू करने से उठाया जाता है. अकसर देखा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति अपना व्यवसाय शुरू करने की सोचता है तो उसे नुकसान होने या बरबाद होने का भय सताता है. इस भय को मनोविज्ञान में निगेटीविटी भी कहते है.  थोड़ा इस पर जोर दिया जाए तो Phobiasसमझ आता है कि जो भय किसी काम को शुरू करने से पहले सताता है. वो कहीं ना कहीं अर्व्यवस्था से जुड़ा होता है. भारतीय अर्थव्यवस्था एक विकासशील अर्थव्यवस्था है. जहां समस्याए ज्याद और समाधान कम हैं. पर यहां सवाल मुह फाड़कर खड़ा है कि यहां समस्याए ज्यादा और समाधान कम क्यो हैं?

इसका कारण सीधा ससझ आता है कि समाधान करने की इच्छा शक्ति खत्म होती जा रही है और जिससे रूची कम हो रही है. बैरोजगारी भारतीय अर्थव्यवस्था की एक बड़ी समस्या है. यह समस्या जस की तस यूहीं क्यो बनी हुई है तो इसके लिए खराब व्यवस्था को काफी हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है पर पूरी तरहं नहीं. भारत में अकसर सुना जाता है कि हमारा बेटा सीईओ या कोई बड़ा अफसर बनेगा और वहीं यूवओं के मुंह से सुना जाता है कि किसी अच्छी कंपनी में जाँब मिल जाए जहां मोटी तनख्वा मिले. पर शायद ही कभी कहा जाता हो कि मुझे एक व्यवसाय खोलना है.

अगर कोई युवा व्यवसाय खोलने की सोचता भी है तो उसको भय सताने लगता है. और अगर डर के आगे कदम बढाता भी है तो उसको कह देते है कि बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है. वहीं जो कदम आगे बढाया था वो भी पीछे खीच लिया जाता है. इसी प्रकार यह दुष्चक्र चलता रहता है.

अब देखिए कि वर्ल्ड बैंक और आईफसी की रिपोर्ट से एक चौंकने वाला तथ्य सामने आया कि व्यवसाय खोलने या करने में हमारा भारत देश पूरी दुनिया में 166वे स्थान पर है. यह तथ्य भारतीय युवाओं की इच्छा शक्ति को बयान करता है और व्यवसाय शुरू करने की इच्छा शक्ति को भी और इसके साथ-साथ ये युवओं और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक शर्म की बात है.

कहना ना हो कि अगर युवा जोखिम से ना डर कर या कह सकते है कि पोसिटीविटी के पर्दे के पीछे छुपी निगेटीविटी से आगे आते हुए अपना खुद का व्यवसाय खोलने है तो उससे लाभ ही होगा. इससे ज्यादा नही तो भारतीय अर्थव्यवस्था को ऊपर उठने में मदद मिलगी. हजारो-लाखो रोजगार उत्पन्न होंगे.

दूसरा, जब रोजगार उत्पन्न होंगे तो महंगी हो चुकी शिक्षा का स्तर सुधरता जाएगा. ऐसा हुआ तो गरीबी भी काफी हद तक कम होगी ये तय है.

बेबाकी से कहा जाए तो यह भय वाली बात शहरी युवा वर्ग पर ज्यादा लागू होती है. और गांव के युवा पर उनके मुकाबले कम. क्योंकी बिहार, उत्तर-प्रादेश और उड़ीसा जैसे राज्यों के गांवो के युवाओं के पास साधन शहरी युवाओं के मुकाबले कम होते है. शहरी युवा के पास साधन होते हैं इसके साथ जागरुकता का दायरा भी गांव के युवा वर्ग के मुकाबले ज्यादा  होता है.

अंत में यही लाईन कहीं ना कहीं सच को बयान करने वाली रखी जा सकती है कि-

“चींटी पहाड़ पर चढने की कोशिश करती है अंत  में चढ जाती है,

पर जो पहले से ही पहाड़ पर रहता है उसको क्यों “भय” सताता है”

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