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आज मीडिया वो अपने असल रूप में देखना बहुत ही अवास्तविक बात हो गयी. आज मीडिया अपने आपको बाज़ार के जाल से इस तरह ढक चुकी है कि उसका वास्तविक रूप कहीं खो कर रह गया है. आज की मीडिया वो नही जो आजादी से पहले थी या आज की मीडिया वो नही रही जो आज़ादी के कुछ समय बाद तक थी. आज मीडिया वो है जो समाज के सभी मुद्दो को एक समान या एक बराबर नही देखती, यह कहने में कोई ज्यादती ना होनी चाहिये कि आज की मीडिया वो है जो इरोम शर्मिला और अन्ना द्वारा उठाए गए मुद्दो की कवरेज करने में संतुलन नही बैठा पाती. आज की मीडिया के मुद्दो पर अगर ध्यान से देखा जाए तो यह साफ़ तैर से दिखाई पड जाता है कि गांवो के द्रश्य या गावों की कवरेज लगभग गायब सी हो गई है. मीडिया खास तौर से टीवी मीडिया लेकिन इसका मतलब यह नही है कि अख़बार संतुलित भूमिका निभाते हैं. बल्कि आज अगर समाचार पत्रो पर नजर डाल कर गांवो की समस्याओं की कवरेज को देखा जाये तो शायद ही मिल पाए. अगर गांवो की कवरेज मिल भी जाती है तो कहने में कोई गुरेज नही होगा कि उस खबर को अखबारो के किसी कोने में ही जगह मिल पाती है. आज की मीडिया या मुख्यधारा की मीडिया पर अमेरीकी पत्रकार वोल्टर लिपमेन द्वारा मीडिया की भूमिका पर दिया गया “एजेंडा सेटिंग सिद्धांत” लागू होता या यह कह सकते है मीडिया एजेंडा सेटिंग के सिद्धांत के दायरे में रहकर ही अपना काम करती है. आज मीडिया उसी मुद्दे को लेकर काम करती है जिससे कोई विवाद जुडा हो या विवाद खडे होने की संभावना हो. लिपमेन के सिद्धांत में इस बात जिक्र कर मीडिया की भूमिका को सोचने पर मजबूर कर दिया. “उनके मुताबिक मीडिया ये बताने पूरी तरंह सफ़ल नही हो पाती कि समाज को क्या सोचना है बल्कि ये बताने में पूरी सफ़ल रहती है कि समाज को किस बारे में सोचना है.”
मीडिया को लेकर लिपमेन के सिद्धांत पर अगर आगे नजर डाली जाए तो पता चलता है कि मीडिया जिन मुद्दो को देती है वही मुद्दें समाज की प्राथमिकताए बन जाते हैं. देखा जाए तो आज की मीडिया पर यह विचार बिलकुल ऐसे ही लागू हो जाते है. आज जिस मुदे को मीडिया बडे ही जोर शोर से उठाता है उसको समाज का समाज ज्यादा सोचे-विचारे बिना ठीक बही नजरिया अपनाने लगता है. पर वास्तविकता बिलकुल इससे भिन्न होती है. आज मीडिया समाज के एक बडे तबके की सोच पर राज करती है यह कहना अतिश्योक्ति बेशक लगती हो लेकिन यह ना मानना वास्तविकता से दूर होने वाली बात होगी यह कहने में भी कोई अतिश्योक्ति की बात ना होगी.
सीनएन आईअबीएन के सीईओ राजदीप सरदेशाई ने अपने ¬भड़ास4मीडिया में छपे लेख “मीडिया और दो आन्दोलनो की दास्ता” में खुद कहीं ना कहीं माना है कि दूरी की वजह से और लागत बढने के डर से भी मीडिया ने इम्फाल जाकर इरोम के बारे कवरेज नही की. देखिय उन्होने साफ़ तोर से कह दिया कि “शायद इम्फाल की तुलना में रामलीला मैदान टीवी स्टूडियो के अधिक निकट है. दूरी की मजबरी है”
सरदेशाई जी की यह बात आज मीडिया किस हद तक अपने मार्ग से भटक चुका है यह बखूबी बयान कर रही है. सही मायनो में अगर कहा जाये तो आज जो मीडिया दिखाता है समाज उसी दायरे में ही सोच पाता है. मीडिया ऐसा एजेंडा सेट करती है कि दर्शक या पाठक उसी मुद्दे के इर्द-गिर्द ही सोच और चर्चाएं कर पाते है. आज अगर समाज के हर एक व्यक्ति से पूछा जाए कि इरोम शर्मिला कोन हैं? जवाब हां में जवाब शायद ही एक बडा तबका दे पाए.
आज मीडिया को वापस उसी दायरे में आने के लिये समाधान की जरूरत है जिसके लिय सार्थक बहस और उचित फ़ैसलों की जरूरत है.
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