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“दर्द-दुख-रोना-बिलखना गुजरात में दंगो के दोरान पिस रहे और कुचले जा रहे निर्दोषों की ऐसीं दांस्तान को बयान करता है कि इसको भुला पाना आज बहुत ही मुश्किल है… आईए पूरी जांच पर विश्लेषणात्मक नजरीये से एक नजर डालते है और प्रयास करते हैं कुछ तर्क लगाकर ये जानने का कि आज आठ बरस बाद क्या रहा जांच का….”
“गुजरात दंगे -2002” ये एक ऐसी घटना थी जिसे भारतीय नागरिक आज भी नही भूल पाया। 2002 फ़रवरी में जिस प्रकार दंगे भड़के और नरसंहार हुये जिसमें हजारों निर्दोष बेदर्दी से तड़प-तड़प कर दगों में मारे गये। यह रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना आज भी नागरिको को कहीं न कहीं परेशान जरूर करती है। इन साम्प्रदायिक दंगो का जिम्मेदार वास्तव में कोन-कोन था, ये आज भी एक बहस का मुद्दा है।
इन दंगो को भड़काने, अंजाम देने वाले और इसके पीछे जिम्मेदार व्यक्तियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिये एक विशेष जांच कमेटी भी बनाई गई। कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही ये कमेटी बनाई गई थी। अब सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इंतजार क्यों किया गया एक जांच कमेटी गठित करने के लिये?
विशेष जांच कमेटी आरके राघवन की अध्यक्षता में जांच को एक सटीक निष्कर्ष तक ले जाने के लिये सबूत एकत्र कर रही थी। एक हिंदी पत्रिका के मुताबिक इस बीच राजनेताओं, नोकरशाहों और तमाम आला अधिकारीयों तथा दंगा पीडितो के बयान रिकोर्ड करके जांच कमेटी को दंगो के जिम्मेदारों को सलाखों के पीछे पहुंचाने के लिये तथा पूरे घटना क्रम की कड़ियाँ खोलने के लिये मजबूत सबूत एकत्र करने पढ रहे थे।
भले ही 31 लोगो को दोषी करार देते हुये कोर्ट ने उन्हे सजा सुना दी हो। लेकिन क्या वह 31 दोषी लोग वास्तव में इतने बड़े और भयावह दंगें को अकेले ही बिना किसी के सहारे अंजाम दे रहे थे। इस सच्चाई से मुह नही मोड़ा जा सकता कि आज भी इन दंगो को अंजाम देने वालो के आका और वास्तविक जिम्मेदार, जो पता नही कहां छिपे बैठे होंगे, वें आज भी खुली हवा में सांस लेर हे है।
अगर आरके राघवन कमेटी की रिपोर्ट में दिये विश्लेषण की माने तो इस जांच कमेटी को दंगाईयों और इसके पीछे जिम्मेदार लोगो के खिलाफ़ तथ्य जुटाने में काफ़ी परेशानी उठानी पड़ रही थी। रिपोर्ट में जो बातें कही गयी हैं वे न सिर्फ़ चोंकाने वाली हैं बल्कि सबूत मिटाने की एक साजिश की तरफ़ भी इशारा करती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2002 में हुये सांप्रदायिक दंगो के दोरान वायरलेस पर की गयी बातें, फ़ोन कोल का ब्यूरा आदि सब कुछ नष्ट हो चुका था। अब इस बात पर ज्यादा टिपणी न करते हुये यही कहा जा सकता है कि दंगो के दोरान वायरलेस रिकोर्डिंगं जैसे तथ्य और तमाम सबूत , जो असली अपराधियों को पहचानने में काफ़ी हद तक मददगार साबित हो सकते थे, वे सब नष्ट हो गये थे या उन्हे नष्ट कर दिया गया था, यह एक बहस का मुद्दा हो सकता है।
ऐसे में, जांच कमेटी को सबूतो के अभाव के चलते एक सही निष्कर्ष तक पहुचने में कितनी मसक्कत करनी पड़ रही होगी ये साफ़ तौर पर समझ में आता है। संजीव भट्ट आईपीएस अधिकारी, जो महिनो पहले से ही चींख-चींख कर दावा करते हुये यह कह रहे थे कि वह 27 फ़रवरी,2002 के दिन दंगो के विषय को लेकर नरेंद्र मोदी द्वारा बुलाई गई बैठक में शामिल हुये थे और जांच कमेटी को सच्चाई बतानी है, उसके लिये कमेटी जब बुलायेगी वह तभी जायेगें।
एक हिंदी पत्रिका को संजीव भट्ट ने जो बात बताई उसे पढकर और जानकर हर एक नागरिक दंग रह गया होगा, क्योंकि संजीव भट्ट ने उस बातचीत में लगभग तीन महिने पहले कहा था कि 2002 के समय गुजरात के ग्रह मंत्री और वर्तमान में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 फ़रवरी को हुई बैठक में सभी अधिकारीयों से कहा या आदेश दिया था कि “कल हिंदुओ का दिन है अब हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने दिया जाये” संजीव भट्ट के इस तथ्यपूर्ण बयान से दंगो में मारे गये एहसान जाफ़री की पत्नी जाकिया जाफ़री द्वारा दिया गया बयान सही साबित होता है। क्योंकि जाकिया जाफ़री ने भी शीर्ष न्यायलय को सोंपी अर्जी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ ऐसा ही बयान दिया था।
इस बयान से भरतीय नागरिको, जांच अधिकारीयों व मीडिया को नरेंद्र मोदी के बारे में इस प्रकार की चर्चाओं और उड़ रही बातों पर जो शक था, वो अब काफ़ी हद तक विश्वास करने वाले विश्लेषणात्मक तथ्य के रूप में तब्दील होता जा रहा था और हो भी गया है। पर दुर्भाग्यवश भारत जैसे देश में किसी छोटे और गरीब अपराधीयों को एक छोटे से तथ्य के आधार पर ही गिरफ़्तार कर, उस पर जीवन भर मुकदमा चालाकर उसकी जिंदगी को नर्ख बना दिया जाता है। लेकिन जब कोई बड़ा अधिकारी या राजनेता अपराध में फ़ंसता दिखाई देता है तो उसके खिलाफ़ मोखिक बयानबाजी जैसे सबूतो को नकारते हुये आखों-देखा और पक्का सबूत पेश करने के लिये कहा जाता है। हाल ही में विदेश में घटित एक घटना- अंतर्राष्ट्रीय मोद्रिक कोष (आईएमएफ़) के प्रबंधक को होटल में किसी महिला के साथ दुष्कर्म करने की कोशिश की शिकायत उस महिला द्वारा करने के तुरंत बाद ही निष्पक्ष कारवाई के तहत प्रबंधक को होटल से ही गिरफ़्तार कर लिया गया। विदेश में किस प्रकार एक निष्पक्ष जांच के तहत भले ही अपराधी बड़ा अधिकारी ही क्यों न हो, एक कड़ी कारवाई जरूर की जाती है, इस बात का अंदाजा सरलता से लगाया जा सकता। सवाल है कि क्या भारत में ऐसा कभी होता है या हुआ है कि किसी अधिकारी या राजनेता को एक ही शिकायत के बाद गिरफ़्तार किया गया हो? सच्चाई यही है कि भारत में निष्पक्ष रूप से जांच या होती ही नही है या अगर होती भी है तो किसी सीमा तक जाकर चारो तरफ़ से दबावो के चलते एक अलग दिशा में मोड़ दी जाती।
सोचनीय बात है कि आखिर कोन सा दबाव था कि विशेष जांच कमेटी ने आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट के तथ्यपूर्ण बयान को दरकिनार करते हुये पूछ-ताछ के लिये कई महिनो तक संजीव भट्ट को कमेटी के सामने बुलाना उचित नही समझा।
एक सवाल जेहन में आता है कि जांच कमेटी पर से अब ऐसा कोन सा दबाव हट गया कि संजीव भट्ट को बुला लिया गया और उनके बयानो को भी दर्ज किया गया?
आखिर संजीव भट्ट जो कोई छोटे पद पर नही बल्कि एक गरीमापूर्ण आईपीएस पद पर हैं, उनके इतने तथ्यात्मक बयान को इससे पहले तवज्जो क्यों नही दी गयी?
गुजरात के इन साम्प्रदायिक दंगो को बीते 9 बरस हो चले, लेकिन कहीं से भी ऐसा नही लगता कि असली दंगो में जिम्मेदार व्यक्तियों तक पहुंचने में एक सही और संतोषजनक परिणाम सामने आने के साथ पीड़ितों को उचित न्याय मिल पाया हो। जैसे-जैसे वक्त गुजरता जा रहा है, वैसे ही दंगे के वास्तविक जिम्मेदार व्यक्तियों को धर-दबोचते हुये, उनके नकाब को उतारने में मुश्किले बढती जा रही है|
अंत में कहा जा सकता है कि:-
छुपा बैठा है तू कहां,
देश को बरबाद करने की नजर रखने वाले,
देखना एक दिन तू अपने ही बनाये जाल में
फ़ंस जायेगा और तुझे तेरा रख वाला यूहीं देखता रह जायेगा,
नकाब उतरेगा जब तेरा-नकाब उतरेगा जब तेरा, देखना कोसेगा तुझे ही तेरा जमीर और ये देश तेरा।
धन्यवाद!
अनिल कुमार
anilkumar89.wordpress.com
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