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हमारी संस्क्रतियों में ये जाति नाम का शब्द बड़ा ही अजीब सा शब्द है. जिसने पूरी राजनीति को ऐसा आकर्षित किया है. जैसे कोई स्वर्ग से आई कोई अपसरा हो. प्राचीन काल में जाति-पात का बहुत महत्व था. कहते हैं जाति से ही व्यक्ति के ओहदे और उसके दमखम की पहचान होती थी. आदमी अच्छा है या बुरा है, इसकी पहचान लोग उसकी जाति से किया करते थे. पर आज देखिए की “जात-पात” के संबध मे एक बात आजकल बहुत सुनने को मिल जाएगी. वो ये कि “जात-पात आज कल कहां रही है”.
फेशनेबल मानसिकता मे जकड़े लोग सोचते हैं कि जात-पात की भावना आज इतना महत्व नही रखती और ये खत्म हो गई है. पर एक और सच्चाई तो यही है कि आज भी जात-पात की भवना बनी हुई है. जिसका रह-रह कर ऐहसास कराती रहीं हैं देश की राजनीतिक पार्टीयां. “जाति” शब्द का आज दम-खम तो देखो की राजनेतिक दलों को भी अपने पीछे-पीछे दोड़ए-दोड़ाए फिर रही है. चुनाव आने की देर नही होती कि दल एक समग्र विकास की बजाए जातियों के विकास का दम भरते नही थकते. उन्हे ये कोई कैसे समझाऐ कि जब एक समग्र विकास होगा तो जातियों का तो खुदमाखुद विकास हो जाएगा.
अभी हालिया में कुशवाह की एक पार्टी से दुसरी पार्टी में आवाजाही और उनकी महमान नवाजी काफी चर्चा में है. कहां जाता है कि बसपा में रहते उनके जरिए एक विशेष जाति के वर्गो को आकर्षित करने का कैंद्र हुआ करते थे कुशवाहा. ये भी कहा जाता है कि एक आकर्षण ज्याद समय तक नही रह पाता. तो इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जब कुशवाहा का आकर्षण करने का सिक्का खोटा सा होता दिख रहा था और ग्रासरूट की राजनीतिक ज्ञान रखने वालीं मायावति शायद ये पहले ही भाप गई थी कि आने वाले चुनावो में कड़ी प्रतियोगिता मिलने वाली है विपक्षी दलों से. तो तुरंत कुशवाहा का अपने दल से फटाफट पत्ता साफ करने में जरा भी देर नही दिखाई.
कुशवाहा पहले कोंग्रेस का दामन थामने गए. लेकिन कहते हैं दूद काजला छांछ कोभी फूक-फूक कर पीता है. कोंग्रेस आज कल फूंक कर ही पीने वालों में से एक हैं. उसने तो भाव दिये नही लेकिन भाजपा नें ऐसी जल्दबाजी करी की उस जल्दबाजी ने अडवाणीं की जनचेतना यात्रा का बट्टा बैठा दिया. उस समय लग रहा था कि अडवांणी की भ्रष्टाचार को लेकर यात्रा का..लोगो पर प्रभाव जरूर पड़ेगा और इस बार जरूर फायदा उठा ले जाएगी भाजपा. पर इस मंशा पर जाति आधारित राजनीति ने पानी फेर दिया. इससे ये तो पता चल ही रहा है कि जाति की राजनीति कितनी जोर और शोर से आगे बढ रही है. लेीकिन इसका मतलब ये नही है कि दूसरी पार्टीयां जाति आधारित राजनीति नहीं कर रहीं.
दरअसल चाहे कितना ही डंका बजाकर विकास के दावे किए जा रहे हैं लेकिन सच्चाई ये ही कि जाति आधारित राजनीति का सिक्का सभी दल चलाने पर अड़े हैं. गोर करने लायक बात है कि ये सिक्का बखूबी चलता भी है. आज शायद कोई ऐसी पार्टी बची हो जिसने पार्टी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जाति की बात ना की हो. विभिन्न जातियों को आकर्षित करने का सिक्का तो चुनाव से ठीक पहले ही आरक्षण को लागू करने और उसे बढाने को लेकर कोंग्रेस ने चलाने का प्रयास किया. जिस पर राजनीति आगे बढते देख चुनाव आयोग ने रोक लगाई. जो एक सराहनीय संवेधानिक कदम है जिसका स्वागत होते रहना चाहिए.
मुलायम सिंह की पार्टी सपा तो पिछड़े जातियों को आकर्षित करने के लिए साफ कहती और ऐलान भी करने से नही चूकती कि सत्ता मे आई तो बस फायदा ही फायदा देगी. कहने को तो सभी दल तरहं तरहं के फायदे पहुंचाने के वादे करते रहें हैं लेकिन मुलायम के वादे अजीबो-गरीब से लगते हैं. तमाम उड़ी खबरो के मुताबिक मुलायम बिजली समेत अधिक से अधिक सुविधाएं सुफ्त पहुंचाने के वायदे कर रहे हैं. पर सोचने वाली बात है कि आज उत्तर-प्रदेश के ऊपर हजारो करोड़ो रुपयों का कर्ज हैं जिसे चुकाने के लिए भी कई साल लग जाएगें ये तो यहां उनकी बातो पर प्रश्न चिन्ह जरूर लग जाता है कि ऐसे में वें सब सुविधाऐ वाकई मुफ्त में दे पाएंगे? औऱ उनके काल में भी घोटाले नही होगें या होंगे..इसका भी अभी कोई अता पता नही है.
आज कोने-कोने से जब छोटे-छोटे कार्यकर्ता टिकट मांगने विभिन्न पार्टीयों के पास पहुंचते हैं तो उनके पास अपनी जाति के वोट के पक्के दावे करने वाले फाईलों में दबे पर्चे होथो में होते हैं. इसकी नोबत शायद आज विकास पर आधारित राजनीति नही बल्की जाति पर आधारित राजनीति के कारण आई है. ये भी तो एक प्रकार का जात-पात ही है. जो हर एक व्यक्ति को रह-रह कर ऐहसास कराता है कि वो कोन सी जाति का है. वाकई ये जाति भी क्या चीज है?
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