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मेरे अतीत का वो किस्सा,
मेरी जिन्दगी का सबसे खूबसुरत लम्हा
जिसे जिया था ,मैने बीते हुए कल मेँ
जो मेरा बचपन था
जब न फिक्र थी,ना कोई गम था
घुटनोँ के बल सरक -सरक मै चलता था
मम्मी,पिताजी की आँखोँ का तारा
घर पड़ोस मेँ सबका दुलारा
मुझसे महकता आँगन व घर था
जो मेरा बचपन था
पिताजी की ऊँगली पकड़ कर के चलना
दादी की गोदी मेँ यूँ बैठे रहना
बाबा के कँधे पे चढ बाग जाना
वो कितना प्यारा पल था
जो मेरा बचपन था
सब से ही था जो अपनापन
अपने पराये का भाव नहीँ था
कच्ची मिट्टी व खपड़े से बने घर मेँ, जब मै धूल से सनी मखमली जमीन पर ही सो जाता था
कितने प्यारे थे वे दिन,
जो मेरा बचपन था
अचानक कभी बीमार होना
मम्मी का रोना,परेशान होना
वो काजल का टीका ,नजरेँ उतरवाना
दादी की दिल से सच्ची दुआएं
सती माँ को नानी का कड़ाही चढाना
वो कितना प्यारा और सच्चा रिश्ता था
जो मेरा बचपन था
दोस्तोँ के संग खेलना गुल्ली -डंडा
कंचे, आँख- मिचौली और लड़ना -झगड़ना
लड़ते झगड़ते मिट्टी मेँ सनना
छोटे-बड़े जाति -धर्म का कुछ पता न था
मान अपमान न कोई गिला शिकवा ही था
कितना प्यारा वह मस्ती का दिन था
जो मेरा बचपन था
भाई -बहन के संग पढ़ने जाना
दोपहर की छुट्टी मेँ घर भाग आना
मम्मी की डाँटेँ,पिताजी का छुड़ाना
नरगट की कलम से पटरी पर लिखना
वह कितना प्यारा दिन था
जो मेरा बचपन था
अपनी तुतली भाषा मेँ किस्से सुनाना
जानवरोँ की आवाजोँ की नकलेँ बनाना
हरकतेँ देखकर सबका ही खुश हो जाना
वो नाना की बातेँ ,बूढे बाबा और बबुआ का किस्सा पुराना
कितना वो पल था सुहाना
जो मेरा बचपन था
मिठाई से मीठी लगती थी माटी
महुआ के नीचे मड़ई मेँ सबसे छुपाकर के खाना
मामा,वो चाचा ,बड़ी माँ,और बड़के पापा
बचपन की बातेँ,वो यादेँ, जो पल था सुहाना
कितना प्यारा था
जो मेरा बचपन था
वह बचपन,वो छुटपन,वो यादेँ,वो बातेँ
मष्तिष्क मेँ कैद वे लम्हेँ,वो रातेँ,और रिश्ते-नातेँ
जिसमेँ आज की तरह तनिक भी फरेब न था जो थे बिल्कुल सच्चे
सच्चे दोस्त ,सच्ची बातेँ,सच्चा गाँव ,सच मेँ ही वो पल था सच्चा
जो मेरा बचपन था
जो मेरा बचपन था
अरुण चतुर्वेदी’ अनंत’
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