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क्या शहीद भगत सिंह नास्तिक थे ?

बिखरे मोती
बिखरे मोती
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भगत सिंह के बाबा, जिनके प्रभाव में वें बड़े हुए एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी थे । अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने डी.ए.वी. स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहे । वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त वें घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों वें पूरे भक्त थे I  बाद में उन्होंने  अपने पिता के साथ रहना शुरू किया जो एक उदारवादी व्यक्ति थे । उन्हीं की शिक्षा से उन्हें  स्वतंत्रता के ध्येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली  किंतु वे नास्तिक नहीं थे । उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास था । असहयोग आंदोलन के दिनों में भगत सिंह ने राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया जहां पर आकर ही उन्होंने  सारी धार्मिक समस्याओं, यहाँ तक कि ईश्वर के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी तक वें पक्के आस्तिक थे I यद्यपि इस समय तक उन्होंने अपने बिना कटे व सँवारे हुए लंबे बालों को रखना शुरू कर दिया था, फिर भी उन्हें कभी भी सिख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धांतों में विश्वास नहीं हो सका था लेकिन उनकी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी।

क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ने के बाद उनके विचारों में परिवर्तन आना शुरू हुआ I यहाँ पर वें जिन लोगों के संपर्क में आये उनमें से  कुछ पक्के आस्तिक थे , कुछ के विचार आस्तिक और नास्तिक के बीच में थे I  कुछ सदस्य ऐसे भी थे जिन्हें ईश्वर में पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस नहीं था । भगत सिंह को अपने इन साथियों की दोहरी मानसिकता से बहुत कष्ट होता था I उनका झुकाव धीरे – धीरे नास्तिकता की ओर होने लगा था और इसी के चलते उन्हें नेताओं और अपने कामरेडों के असहयोग का सामना करना पड़ा I इस असहयोग के चलते उन्हें इस बात का स्पष्ट बोध हुआ कि बिना अध्ययन के वें अपने विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने में सफल नहीं हो पाएंगे अतः उन्होंने पढ़ना शुरू कर दिया। इस अध्ययन के फलस्वरूप उनके पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए । उन्होंने स्पष्ट तौर पर इस बात को स्वीकार किया कि हिंसा तभी न्यायोचित है जब किसी विकट आवश्यकता में उसका सहारा लिया जाए। अहिंसा सभी जन आंदोलनों का अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए। अब उनके विचारों में रहस्यवाद और अंधविश्वास के लिए कोई स्थान नहीं था I उनके लिए अब सबसे आवश्यक बात उस आदर्श की स्पष्ट धारणा की थी जिसके लिए वें सब लड़ रहे थे और वह थी नास्तिक वाद में उनकी बढ़ती आस्था ।

जैसे – जैसे उन्होंने  अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा,  साम्यवाद के पिता मार्क्‍स , लेनिन, त्रात्‍स्‍की व अन्य लोगों को पढ़ा जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे उनका झुकाव नास्तिकता की और होता चला गया I समय के साथ – साथ वे अपने साथियों में एक पक्के नास्तिक के रूप में प्रसिद्ध हो गए I

बाकुनिन की पुस्तक ‘ईश्वर और राज्य’ पढ़ने के बाद उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात – जिसने ब्रह्मांड का सृजन किया, दिग्दर्शन और संचालन किया – एक कोरी बकवास है। और अपना यह विचार उन्होंने दोस्तों को भी बताया I धीरे – धीरे वें अपने  दोस्तों में  एक घोषित नास्तिक हो गए I

स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगत सिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की काल कोठरी में पहुँचने में सफल हुए और भगत सिंह को ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर उनसे कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है।

भगत सिंह  बाबा रणधीर सिंह के इस आक्षेप से बहुत आहत हुए और तब उन्होंने जेल में रहते हुए एक  आलेख लिखा जो लाहौर से प्रकाशित समाचारपत्र  “द पीपल” में 27 सितम्बर 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ I

इस आलेख के अनुसार  मई 1927 में भगत सिंह की लाहौर में गिरफ्तार के बाद पुलिस ने उन पर सरकारी गवाह बन जाने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया जिसके लिए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में मन कर दिया I उन्हीं दिनों पुलिस अफसरों ने उन्हें  नियम से दोनों समय ईश्वर की स्तुति करने के लिए फुसलाना शुरू कर दिया। यह उनके लिए एक चुनौती की घड़ी थी I

अपने इस आलेख में वें आगे लिखते हैं “ अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिए यह बात तय करना चाहता था कि क्या शांति और आनंद के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दंभ भरता हूँ अथवा ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धांतों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने यह निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। न ही मैंने एक क्षण के लिए भी अरदास की। यही असली परीक्षण था और इसमें मैं सफल रहा। एक क्षण को भी अन्य बातों की कीमत पर अपनी गर्दन बचाने की मेरी इच्छा नहीं हुई। अब मैं एक पक्का नास्तिक था I”

अपने इसी आलेख में वे एक जगह लिखते है :-

“मैं अपना जीवन एक ध्येय के लिए कुर्बान करने जा रहा हूँ, इस विचार के अतिरिक्त और क्या सांत्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिंदू पुनर्जन्म पर एक राजा होने की आशा कर सकता है, एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्टों और बलिदानों के लिए पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किंतु मैं किस बात की आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरो के नीचे से तख्ता हटेगा, वही पूर्ण विराम होगा – वही अंतिम क्षण होगा। मैं, या संक्षेप में आध्यात्मिक शब्दावली की व्याख्या के अनुसार, मेरी आत्मा, सब वहीं समाप्त हो जाएगी। आगे कुछ भी नहीं रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई जिंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी, यदि मुझमें उसे इस दृष्टि से देखने का साहस हो। यही सब कुछ है। बिना किसी स्वार्थ के, यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने आसक्त भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था।“

भगत सिंह के लिए देश सेवा और उसके लिए बलिदान हो जाना ही परम धर्म था I

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