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अपरिभाषित अधिकारों का कैसा अस्तित्व ?-Jagran Junction Forum

khushiyan
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आधुनिक भारत में स्त्री विमर्श अधिक गहरा नहीं रहा है ।इसका प्रमुख कारण हमारी दोषपूर्ण और सुविधागामी सामाजिकता रही है । स्वतंत्रता के पश्चात प्रारम्भिक कुछ पंचवर्षियों में जो सरकारी प्रयास हुए भी उनमें स्त्री को बनाने पर ही जोर दिया गया , बनने पर नहीं ।बाद में शिक्षा , संचार और वैश्वीकरण के कारण भारत में स्त्री विमर्श को एक सही दिशा मिल पाई है । स्त्री अधिकारों की मांग और समाज में उनकी स्वीकार्यता का तरीका दो अलग पहलू हो जाते हैं ।ठीक उसी तरह जैसे कर्मचारी का अपने नियोक्ता से अपने व्यावसायिक हितों की मांग और किसी इंसान का दूसरे से मानवाधिकारों की मांग ।
अति हर चीज की खराब होती है लेकिन भारत में अभी स्त्री विमर्श इस हद तक नहीं पहुंचा कि इस पर उठ रहीं अंगुलियों के आधार पर हमें इसकी प्रासंगिकता ही विचार करना पड़े ।फिर भी यदि स्त्री अधिकारों की आवाजों के बीच में स्त्री अस्तित्व की गूँज सुनाई पड़ने लगी है तो यह कुछ और नहीं वरन उसी उतावली और अति प्रतिक्रियावादी मानसिकता का परिणाम है जो हर चीज के लिए आवश्यक-अनावश्यक पक्ष-विपक्ष बनाना चाहती है।
स्त्री अधिकारों की इस चर्चा में स्त्री अस्तित्व का यह भ्रम निश्चित ही इस कारण से है की हम अभी तक स्त्री अधिकारों को ठीक तरह से परिभाषित ही नहीं कर सके हैं । स्त्रियों को लेकर हमारी सामाजिकता में आज भी वही तय मानक हैं जो पुरुषवादी मानसिकता ने तय कर रखे हैं (क्षमा करें पुरुषवादी से मेरा तात्पर्य पुरुषों की मानसिकता से नहीं है वरन उस सोच से है जो स्त्रियों को निर्णय प्रक्रिया से दूर मात्र सम्मान का प्रतीक बनाना चाहती है ) ।
यह तो तय है कि एक के अधिकार दूसरे के अधिकारों से टकरायेंगे ही ।इसे में यदि अधिकारसंपन्न पुरुष स्त्री अधिकारों की बात करें तो स्त्रियाँ कुछ अतिरिक्त लेती हुई नजर आयेंगी ही ।हमारी पुरुष प्रधान सामजिक संरचना में कुछ ख़ास तत्वों को मिला कर पौरुष नामक अहम् उत्पन्न किया गया है , स्पष्ट है कि जब तक हम परम्परावादी बने रहेंगे इन तत्वों में से स्त्रिओं के के लिए कुछ नहीं निकलने वाला और निकलेगा भी तो पौरुष से उधार के रूप में ही और तब चर्चा इस स्तर पर पहुँच ही जायेगी की स्त्रियाँ दोयम हैं और पुरुष उन्हें कुछ दे रहे हैं ।
स्त्रियाँ अबला हैं इसलिए उन्हें अधिकारों की आवश्यकता है मैं इस बात से जरा भी सहमत नहीं हूँ क्योंकि अबला यानि कमजोर, और कमजोर को सुरक्षा की आवश्यकता होती है अधिकारों की नहीं । स्त्रियों को अधिकार चाहिए और अधिकार उसी को मिलते हैं जो सक्षम हो । भारतीय समाज स्त्रियों को सक्षम बनाये अधिकारों की बातें हो रही हैं तो अधिकार उनके लिए बेकार लगेंगे ही ।सक्षम से तात्पर्य सिर्फ आर्थिक रूप से नहीं मानसिक और सामाजिक रूप से भी ।हम दोयम दर्जे कि बात अधिकतर स्त्रियों के सन्दर्भ में ही करते हैं ; अब ज़रा इस पर गौर करें –भारतीय समाज में स्त्रियों को ही परिवारों के सम्मान का प्रतीक माना जाता है ,क्या यहाँ पुरुषों को दोयम दर्जे का नहीं मना गया ? लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू तो ये है कि स्त्रियों को सम्मान धारण करने के योग्य ही नहीं माना गया , क्योंकि वे अबला हैं ।यह मानसिकता पुरुषों को स्वतः ही श्रेष्ठ सिद्ध करती है और उन्हें स्त्रियों का धारक बनाती है । ऐसी स्थिति में स्त्री अधिकार पर प्रश्नचिह्न लगता ।
निश्चित ही स्त्री अधिकारों की मांग स्त्रियों को अबला नहीं वरन उन्हें सक्षम बनाती है,अब यह हमारे समाज पर निर्भर है कि वह कब ”स्त्रियों को धारण करने की वस्तु ” वाली मानसिकता से मुक्त हो पाता है , क्योकि स्त्रियों के अस्तित्व के लिखे यही आवश्यक है ।

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