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कल्याणकारी राज्य और कठोर कानून

khushiyan
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गणतंत्र दिवस के इस 64वें समारोह के उपलक्ष्य में सर्वप्रथम तो मेरी शुभकामनायें लोकतंत्र के उन सभी करोड़ों प्रतिनिधि नागरिकों के लिए , जो लगातार परिपक्व होते जा रहे संविधान और संविधानिक व्यवस्था में अपनी आस्था और निष्ठा व्यक्त करते हैं ।
एक संविधान ही वह व्यवस्था होती है , किसी राज्य के नागरिकों को एक अमूर्त राज्य के प्रति भी विश्वास , सुरक्षा और सम्मान प्रकट करने के लिए प्रेरित करता है । संविधान किसी भी राष्ट्र का चरित्र और चाल-चलन तय करने वाला करक होता है । साथ ही यह राष्ट्र की भविष्यगत नितियों के लिए आधारभूत ढांचा भी उपलब्ध करवाता है । अतः सहज ही अमझा जा सकता है की एक राष्ट्र के निर्माण में संविधान ‘नींव का पत्थर’ की भांति कार्य करता है ।
भारतीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के आलोक में जब हम इसका व्यवस्थागत रूप देखते हें , हमें सहर्ष ही यह अनुभूति होती है की हम एक श्रेष्ठ सांविधानिक व्यवस्था के पाल्य हैं । परन्तु जब हम इसी व्यवस्था के व्यवहारगत पहलू को देखते हैं , तो आज के परिप्रेक्ष्य में अनेक असंवैधानिक तत्वों की उपस्थिति खटकती है ।
निश्चय ही आज का भारत संक्रमण काल में है। एक श्रेष्ठ संविधान के होते हुए भी हमारी राजनितिक और वैधानिक व्यवस्था दोषपूर्ण प्रतीत होती है ।आज के भारत में घोर असंतुष्टि का वातावरण है । एक लोकतंत्रात्मक राष्ट्र के लिए बहुसंख्यकों की असंतुष्टि कभी भी उचित नहीं होती है । अतः यही वह उचित अवसर है , जब हमें यह विच्कारना होगा की श्रेष्ठ नियमों व् व्यवस्था और एक कल्याणकारी राज्य में क्या सम्वन्ध होता है ।
कहा जाता है की एक अच्छी व्यवस्था दीर्घ काल में ख़राब व्यवस्था हो जाती है । हालाँकि इस लिहाज से हमारी लोकतंत्रीय व्यवस्था काफी लचर है और तमाम संसोधनों के द्वारा हम अपनी व्यवस्था को वर्तमान समय के अनुसार ढालते रहते हैं । तथापि प्रश्न यही है की इतनी उत्तम व्यवस्था के वावजूद आज के परिवेश के अनुसार व्यवस्था में वांछित परिवर्तन कर इस असंतोष को दूर करने के प्रयास क्यों नहीं हो रहे हैं ? आज इस लोकतंत्र के उत्सव में इसी प्रश्न का उत्तर वांछित है।
आज भारतीय जनमानस निश्चय ही काफी असंतुष्टि से भरा से भरा है लेकिन सुखद यही है की लोगों का भरोसा हमारी लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में है। हालाँकि वर्तमान के राजनितिक अराजकता के वातावरण और प्रशासनिक अपंगता के कारण वातावरण इस प्रकार का निर्मित हो चुका है की एस लगता है जैसे भ्रष्टाचार , अपराध , घोटाले आदि को रोकने में हमारी वैधानिक व्यवस्था समर्थ नहीं है और इस प्रकार की मांगें उठने लगीं हैं की कानूनों को कठोरतम रूप प्रदान किया जाये ।
लेकिन प्रश्न यही है की क्या कठोर कानून लोगों को कानूनों का पालन करने के लिए प्रेरित कर पाएंगे । मेरे विचार से बिलकुल नहीं । कानून कठोर करने के बाद भी यदि हमारी राजनीतिक अराजकता और प्रशासनिक अपंगता इसी प्रकार रही तो स्थिति भला कैसे सुधर सकती है । कानूनों का अनुपालन मुख्य है।हमें कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करना होगा । कठोर कानून बनाने में कोई हर्ज नहीं है । लेकिन सिर्फ क़ानून ही कानून का राज स्थापित नहीं कर सकते हैं। एक लोकतंत्र में नागरिक महत्वपूर्ण हैं , और नागरिकों का आचरण ही उस लोकतंत्र का आचरण है।
यह सर्वसिद्ध बात है की किसी का भी आचरण डर या भय से ही नहीं सुधर जा सकता है , कोई इंसान भला कब तक डरकर जी सकता है। अतः कानूनों के उचित पालन के लिए हमें आचरण निर्माण के अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना होगा । इसके लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था से लेकर सामाजिक व् आर्थिक सुधर तक शामिल हैं ।हम आजतक जातिप्रथा , छुआछूत , साम्प्रदायिकता , लिंगभेद , गरीबी, अशिक्षा जैसी समस्याएँ तो सुलझा नहीं सके हैं , तब भला हम कैसे कह सकते हैं कि कमियां हमारे कानून में हैं और उन्हें बदलना चाहिए ।
मेरी दृष्टि में हमारा संविधान एक कल्याणकारी राज्य के लिए काफी हद तक पर्याप्त है । इस पर अंगुली उठाने के बजाय हमें आधुनिक समय के अनुसार पुलिस सुधार और आधुनिकीकरण , प्रशासनिक सुशार और आत्मसक्रियता , आर्थिक समानता , सामजिक सुधार जैसे प्रयासों पर अपनी ऊर्जा व्यय करनी चाहिए ।कठोर कानून अपराधियों पर लागू होते हैं , आअज के भारत में तो भ्रष्टाचार और सामाजिक अपराधों के अपराधी शायद हर घर में मिल जायेंगे ।ऐसे में कल्याणकारी राज्य के तत्वों पर सक्रियता होनी चाहिये ।
अंत में अपनी पूर्ण निष्ठा अपनी संवैधानिक व्यवस्था में व्यक्त करते हुए उम्मीद करता हूँ की शीघ्र ही एक आदर्श लोकतंत्र के वातावरण का सृजन करने में हम सफल हो सकेंगे ।
जयहिंद।

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