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18 साल का फर्क

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आज एक फर्क था। आधी रात 12 बजे यानी एक अक्टूबर को यह सब लिखते वक्त मुझे याद आ रही 6 दिसंबर 1992 की शाम। दूरदर्शन और रेडियो, समाचार के इलेक्ट्रानिक माध्यम यही थे। सुबह से ही हर तरफ एक अजीब-सी खामोशी पसरी थी। मानों आज कुछ होने वाला है।
पता नहीं, लोग कितने विश्वास के साथ बोल रहे थे, हां आज तो…। अयोध्या से हजार किलोमीटर दूर बैठा हुआ आदमी भी। आठ बजे (संभवत: यह बुलेटिन का वक्त था) रात की बुलेटिन में दूरदर्शन पर सलमा सुल्तान खबरें पढऩे आईं। देश में जो हुआ था, वह उनकी कांपती जुबान बयां करने के लिए काफी थी। हां, उस दिन बच्चा-बच्चा प्रतीक्षा कर रहा था कि अयोध्या में क्या हुआ।
ये बातें अनायास मेरे जेहन में ताजा हो गईं। तीस सितंबर को भी दिन भर कुछ वैसा ही माहौल। लोग आशंका-अनहोनी से घिरे हुए। सुबह होते ही सड़क पर सन्नाटा। फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट में हो रहा था, मसला अयोध्या का था। पर, रांची इतने सन्नाटे में क्यों। हां, सन्नाटा दिन भर रहा। लेकिन, 1992 और इस सन्नाटे का फर्क साफ दिखा। आज बच्चों को अयोध्या फैसले से कोई खास लेना-देना नहीं था। स्कूल से लौटने के बाद क्रिकेट का बल्ला लेकर ये बच्चे गली के मैदान में निकल पड़े। बड़े-बूढ़े जरूर उत्सुक थे, पर उनकी उत्सुकता में भी 18 साल पहले वाली बेचैनी नहीं दिख रही थी। यानी, इतने वर्षों में हमारी सोच ने इतना फासला तो तय किया, जहां विवेक साथ रहे। बच्चे साइंटिफिक हो चले हैं, धर्मांध नहीं। यह मैंने हिन्दू-मुस्लिम दोनों समाज के किशोरों में आज देखा। हां, इस मौके पर शंाति-सौहार्द की अपीलें भी की गईं। अच्छा है, लेकिन अपील करने वालों की मंशा मुझे झकझोर गई। उनकी फिक्र बस इतनी कि उनका नाम अखबार में आ जाए। दिन भर के सन्नाटे के बाद की शाम जब थोड़ी-बहुत चहल-पहल में बदल रही थी तो मैं सोच रहा था, शांति-सद्भाव की अपील करने वाले ऐसे ही लोग एक अच्छे-खासे माहौल को तनाव में बदल देते हैं। ताकि, अपनी दुकान चलती रहे।
अश्विनी

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