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चार दिनों से मीडिया में, चौक-चौराहे पर, गांव-शहर में। हर तरफ अन्ना ही अन्ना। आखिर क्यों? क्या सारे लोग पगला गए हैं? या हिप्टनोटाइज कर दिया गया है? ऐसा कुछ नहीं है। दरअसल, यह आक्रोश है वर्षों से भ्रष्टाचार का दंश झेलते-झेलते घायल हो चुके जनमानस का। अन्ना नाम के डॉक्टर ने इसमें चीरा लगाया और आक्रोश का मवाद बह निकला।
एक प्रसंग की चर्चा लाजिमी है। दूसरी कक्षा में पढऩे वाली मेरी छह साल की बेटी ने मुझे फोन किया। कहा-पापा! नंबर नोट कीजिए। इस पर कॉल करेंगे तो एक बार रिंग होगा और आपको एक मैसेज मिलेगा। कोई पैसा नहीं कटेगा। फोन कीजिए मतलब आप अन्ना को सपोर्ट कर रहे हैं। टीवी देखते-देखते मैं इस पर काफी गंभीरता से सोचता रहा। छह साल की छोटी-सी बच्ची और अन्ना उसके जेहन में भी। अब इसे क्या कहेंगे? अखबार-टीवी में उसने पहले भी ऐसी रैली-प्रदर्शन की तस्वीरें देखी होंगी। पर, आज अन्ना के लिए फोन क्यों? मतलब साफ है। मुझे याद है, नामांकन के लिए जब मैं उसे लेकर स्कूल में गया था। उसने बढिय़ा टेस्ट भी दिए। रिजल्ट आया नो सेलेक्शन। अंदरखाने दाखिले कैसे होते हैं, यह मुझे भी पता है और सभी को। उसने मुझसे पूछा-पापा! क्या मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ, एडमिशन नहीं होगा? तब पांच साल की बच्ची का यह मासूम सवाल था। खैर, एडमिशन तो हो गया। लेकिन सवाल वही है, हर कोई कहां-कहां लड़ाई लड़ता चले। इस भीड़ का, अन्ना को देशव्यापी समर्थन का राज यही है। अमिताभ बच्चन महानायक बन गए अपनी फिल्मों के कारण। यंग एंग्रीमैन की छवि। महानायक इसलिए बने कि रिक्शा-ठेला चलाने वाले, कुली-कबाड़ी, दफ्तरों में काम कर रहे लोग, कलमकार हों या ऐसे ही आम लोग। अमिताभ के हर किरदार में उन्हें अपना अक्स दिखा। आज देश अन्ना में खुद का अक्स देख रहा।
तर्क-दर-तर्क दिए जा रही है हुकूमत। कभी सड़क की बात, कभी संसद की बात। लोकतंत्र की गरिमा, इसकी आन-बान सब कुछ संसद में है। इससे कतई इंकार नहीं और न ही इसकी गरिमा पर किसी तरह का आघात या इसे ढाहने की कल्पना भी कोई सच्चा भारतीय कर सकता है। उस संसद की मर्यादा की रक्षा का दायित्व और धर्म भी न सिर्फ संसद के अंदर के लोगों, बल्कि आम जनता का भी है। सवाल आज इसलिए उठ खड़े हुए हैं। बच्चे भूख से बिलबिला रहे हों और अनाज गोदामों में सड़ रहा हो। जनता आवाज उठाए तो क्या उसे संसद, सरकार और प्रशासन का मामला बताकर खारिज कर देंगे? यहां तो चीनी महंगी होती है तो सलाह दे दी जाती है कि चीनी मत खाओ। संसदीय परंपरा की दुहाई देने वाली जमात में ही से किसी ने यह सलाह भी तो दी थी। जनता क्या करे? विवेकानंद ने कहा था-तुम सिर्फ विचारों की बाढ़ ला दो, बाद बाकी प्रकृति खुद संभाल लेगी। अन्ना ने तो बस यही किया। अगर अन्ना की बात गलत है, जिद गलत है तो संसदीय परंपरा की दुहाई देने वालों की जमात में से कोई क्यों नहीं अन्ना के खिलाफ माहौल खड़ा कर देता? इसलिए कि ईमानदारी और नैतिकता में बड़ा दम होता है। वह घायल हो सकता है, हार नहीं सकता। इतना तो साबित हो गया। अन्ना की गिरफ्तारी, सरकार को उसकी जानकारी नहीं होना और आनन-फानन में रिहाई का फैसला। क्या देश यह नौटंकी नहीं देख रहा था? कहा जाता है कि कानून क्या मैदान में बनेगा? सड़क के लोग बनाएंगे? लोकतंत्र में कितनी दंभ भरी बात? कितने दंभ के साथ कहा जा रहा कि अभी तीन साल तक कुछ मत सोचिए। मतलब पांच साल की सत्ता सुरक्षित है। क्या संसदीय परंपरा और गरिमा में इन दंभ भरे शब्दों की इजाजत है। यह सड़क का आदमी कौन है। भारतीय लोकतंत्र में तो समानता का सिद्धांत है, फिर ‘सड़क का आदमीÓ का मतलब? सत्ता के नुमांइदे यहीं चूक-दर-चूक करते चले गए। वो भूल गए कि यहां दो समाज है। एक तो तथाकथित पावर से लैस लोग, जिनका अस्तित्व है। खास पहचान है, भले ही वह पहचान जनता ने दी हो। दूसरा समाज वही सड़क का आम आदमी। जूता सिलने वाला, पान की गुमटी में पान बेचने वाला, खोमचे वाला, राशन-कपड़ा बेचने वाला, कलम घिसने वाला, टेंपो-टैक्सी चलाने वाला, कंडक्टर, ड्राइवर, मोची, धोबी, टीचर, डॉक्टर, इंजीनियर, सिपाही, क्लर्क…। लंबी फेहरिस्त है। अस्तित्वविहीन। लेकिन, अस्तित्व इन्हीं का है, इसी सड़क के आम आदमी का। और, शायद सियासत-सत्ता इसे अब तक समझ चुकी होगी।
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