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मैं निशा मित्तल जी और राहुल गोयल जी की बातों को सम्मान देते हुए उनकी निजी भावनाओं की कद्र करता हूं। मेरे पिछले ब्लॉग ‘…तो राहुल की चिंता वाजिबÓ के संदर्भ में कश्मीर का दिया गया उदाहरण गलत नहीं है। हां, राहुल गोयल जी ने राहुल गांधी के क्रिश्चियन होने की बात कही। इससे मेरे विचार थोड़े अलग हैं। भारतीय संस्कृति और वैवाहिक परंपरा में क्या राहुल क्रिश्चियन हैं? एक सामान्य-सी परंपरा है अपने यहां। लड़की तो वहीं की हो जाती है, जिस घर में जाती है। राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से ब्याह किया। राहुल उनकी संतान हैं, क्या भारतीय परंपरा बदल गई है? इससे ज्यादा कुछ नहीं कहना।
हां! निशा जी का दर्द वाजिब है कि कश्मीरी पंडितों को किस तरह धकेल कर बाहर किया गया। उनकी हत्या की गई। मैं बस इन्हीं सवालों से एक घटना का जिक्र करना चाहता हूं।
अभी कल-परसों की ही बात है। एजाज नाम का एक मैट्रिक पास लड़का मुझसे मिला। पता नहीं, कूड़े बीनने वाले बच्चों को देखकर उसके मन में कौन-से भाव उठे कि उसने उनकी पढ़ाई का जिम्मा उठा लिया। अपने घर की छत को स्कूल का रूप दे बच्चों को पढ़ाने लगा। मैंने उससे पूछा, खुद एक मामूली मैकेनिक हो। पैसे लगते होंगे? उसने कहा, सुकून मिलता है इन बच्चों को देखकर। लेकिन, एक दर्द भी है। कैसा दर्द? कहा, लोग सशंकित निगाहों से देखते हैं, कोई मदद को नहीं आया। हंसी भी उड़ाते हैं लोग। हम मुसलमान हैं न! बता दूं कि उसके स्कूल में हिंदू-मुसलमान सब पढ़ते हैं। स्लम एरिया के बच्चे। जो शायद पढ़ नहीं रहे होते तो कहीं जुआ खेल रहे होते, कहीं सिगेरट फूंक रहे होते और पॉकेट मार रहे होते। एजाज नेक काम कर रहा है, लेकिन उसके मन में कहीं-न-कहीं एक बात घर गई है कि वह मुसलमान है। आखिर क्यों? वह खुद बोलता है कि देश-दुनिया में जो हो रहा उसमें तो हमारी कौम बदनाम…।
जरा सोचें, कल की तारीख में। आने वाले समय में ऐसा ही कुछ हिंदुत्व के नाम पर हुआ तो कल की पीढ़ी के मन में भी यही सवाल उठ सकता है या नहीं, जो आज एजाज के मन में उठा है। हम आज गर्व से कह रहे हैं न कि हमारी जाति सहनशील है, सहिष्णुता का परिचायक है। हमने दुनिया को शांति का संदेश दिया है। हां! हम सहिष्णु हैं, कायर नहीं। सत्य-अहिंसा के पाठ के साथ देश के दुश्मनों से लडऩा भी सीखा है। कारगिल का युद्ध गवाह है। क्या तब स्कूल-कॉलेजों में पढऩे वाले छात्रों ने सीमा पर जाने की गुहार नहीं लगाई थी? एक एनसीसी कैडेट होने के नाते मुझे याद है, जब हमलोगों ने भी पत्र भेजे थे प्रधानमंत्री को कि जरूरत पड़े तो हमें भी मौका दिया जाए। पर, हिंदुत्व को कोई दूसरे सांचे में ढालने की कोशिश करे, औरों की तरह ही एक समानांतर सोच पैदा करे तो क्या हमारा यह मान और गौरव रह जाएगा?
आतंकवाद सिर्फ आतंकवाद है। उसकी न कोई जाति होती है, न मजहब। हां, अपना उल्लू सीधा करने के लिए उस पर जाति-धर्म का मुलम्मा जरूर चढ़ा दिया जाता है। चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। इसलिए, मुझे लगता है कि राहुल की ‘हिंदू कट्टरवादÓ की चिंता वाजिब है। ताकि, कल की तारीख में हम पर भी औरों की तरह सवाल न उठे। मुसलमानों की पूरी कौम विध्वंसक सोच की तो नहीं। लेकिन, आतंकी संगठनों के लिए धर्म या दूसरे बहाने से उन्हें फांस लेना बहुत आसान है। बदनामी का ठीकरा सबके माथे, एक अविश्वसनीय निगाहें। उन्हें कट्टरता का पाठ पढ़ाने की कोशिश की जाती है, धर्म के ठेकेदार शिक्षा से दूर रखते हैं, ताकि दुकान चलती रहे। क्या हिंदू समाज में भी किसी को ऐसा करने की छूट दी जानी चाहिए?
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