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…तो राहुल की चिंता वाजिब

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हिंदू या ‘हिंदू कट्टरवाद!Ó राहुल गांधी की अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोएमर से हुई बातचीत के अंश भाया विकलीप्स मीडिया में आने के बाद एक नई बहस छिड़ गई है।
बयान पर प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, पर क्या आ रहीं प्रतिक्रियाएं स्वस्फूर्त हिंदूवादी प्रतिकार है या राजनीतिक? अगर राहुल ने हिंदू जाति को लक्ष्य कर बयान दिया है तो निश्चित रूप से यह निंदनीय है। पर, ‘हिंदू कट्टरवादÓ का जिक्र किया है तो हाय-तौबा बयानों के ग्राफ से कहीं ऊपर कही जा सकती है। भारतीय सनातन धर्म की अपनी गरिमा है। हमने तलवारों के बूते धर्म का प्रचार-प्रसार नहीं किया है। हिन्दुत्व पर स्वामी विवेकानंद का स्पष्ट दृष्टिकोण यही तो था। यह तो हमारी संस्कृति में रची-बसी एक एक ऐसी व्यवस्था है, जिसने सबको आत्मसात किया। सहिष्णुता और विश्व बंधुत्व के जिस परचम को लेकर हम चले, उसी का परिणाम है कि योग हो या शांति की खोज, दुनिया आज भारत की ओर देख रही है। हिन्दुत्व की इस व्यापक परिभाषा को अगर कहीं से कट्टरता का जामा पहनाया जाता है तो वह उसकी महानता और संस्कारों पर हमला ही होगा। राहुल की चिंता इसको लेकर भी तो हो सकती है। यह मेरा मानना है। अगर उन्होंने हिंदू कट्टरवाद को लेकर चिंता जताई है तो सही है। धर्म के प्रति महात्मा गांधी का रुख भी बेहद स्पष्ट था। हिंदुत्व उनके लिए गौरव भरा शब्द था। पर, उस हिंदुत्व में कट्टरता नहीं, औरों को समेट लेने का मंत्र। विश्व बंधुत्व, सत्य-अहिंसा और वसुधैव कुटुम्बकम के मंत्रों के साथ आजादी की जंग। जिन विचारों ने, जिसकी ईमानदार ताकत ने ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंका। रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम के भजनों में हिंदुत्व की विचारधारा कहीं से भी कट्टरता का बोध नहीं कराती हुई, बल्कि पूरी दुनिया को अमन-चैन का संदेश देती हुई। पिछले दिनों ही भारत की राष्ट्रपति ने कहा कि यह हमारी सबसे बड़ी ताकत ही है कि बापू के जन्मदिवस को यूएनओ ने हिंसा निषेध दिवस घोषित किया। जिस संस्कृति को, जिस भारतीय जीवन को दुनिया इस रूप में देख रही हो उस पर कहीं से भी कट्टर होने की छाप पड़े तो क्या हमारा वही अस्तित्व और वही मान रह जाएगा? बड़ी-बड़ी महाशक्तियों के बीच भारत की ताकत उसकी यही आत्मा तो है। लश्करे तोयबा जैसे संगठनों की फितरत सबको पता है। पर, हिन्दुत्व के नाम पर ऐसे संगठन (कट्टरवादी स्वरूप वाले) अगर पैदा होते हैं तो निश्चित रूप से यह चिंता का विषय है। जिन आतंकी संगठनों ने इस्लामिक धर्म की आड़ में अपना वजूद खड़ा किया, क्या उससे आज वही कौम परेशान नहीं? क्या पाकिस्तान जैसे देश को भी ये संगठन बख्श दे रहे? क्या उनमें खुद के नेतृत्व और अवाम पर अपनी हुकूमत थोपने की ख्वाहिश हिलोरें नहीं मार रहीं? शुरूआत कुछ ऐसे ही होती है। कल की तारीख में अगर हिंदुत्व जैसे बहुसंख्यक और विशाल समुदाय में भी ऐसी महत्वाकांक्षा घर कर गई तो क्या होगा? धर्म किसी की जागीर नहीं होती और न ही उसका कोई ठेकेदार होता है। हिंदुत्व की ही बात करें तो इसका लबादा ओढ़े लोगों के किस्से भी सामने आ चुके हैं। स्वामियों से लेकर समाज के कथित ठेकेदारों तक के। हां! हिंदुत्व की मान-मर्यादा और इसके गौरव की रक्षा निश्चित रूप से हमारा धर्म है। कारण, जो अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सका वह दूसरों को क्या सम्मान दे सकेगा। लेकिन, इसका रास्ता कट्टरपंथ नहीं, वह है आत्मिक शक्ति और उसके अनुकूल आचरण। और, इसको लेकर राहुल की चिंता वाजिब कही जा सकती है। यह कि यहां कट्टरता आ गई तो क्या होगा?

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