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मूर्तियाँ तोड़ना कितना सही है।

चंद लहरें
चंद लहरें
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यह सही है कि त्रिपुरा मे भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन रही है और यह साम्यवाद की विचारधारा का विरोध करती है।पर सैद्धान्तिक विरोध अथवा अत्यधिक हर्ष के प्रकाशन के लिए  ही सही, लेनिन की मूर्तियों को बुलडोजर से ढहा देना किसीभी  प्रकार से उचित नहीं जान पड़ता ।यह एक कायरता  पूर्ण कृत्य  है।.लेनिन के सिद्धान्तोंने अपना महत्व खो दिया है पर कभी इसने अपने क्रान्तिकारी विचारोंसे सारे विश्व पर राज्य करना चाहा था।पूँजीवादी सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के प्रति एक विद्रोहात्मक स्वर था। लाल क्रान्ति ने विश्व में इसके अमानवीय दृष्टिकोण के कारण लोकप्रियता धीरे धीरे समाप्त कर दी।किन्तु यह एक विचारधारा थी और  त्रिपुरा जैसे राज्य की जनता का समर्थन पा ही वहाँ  इतने दिनों तक अस्तित्व में रही।आज बदलेहुए परिवेश मे उसके प्रतीक अवशेषों को समाप्तकरने की चेष्टा करना जनमत और इतिहास दोनों का निरादर करनाहै।यह बदले का स्वर प्रतीत होताहै।अगर सरकार मूर्तिभंजन के खिलाफ है तो प्रतिक्रियाएँ इतनी देर से और शिथिल स्वर में क्यों?ऐसालगता है कि इस सम्बन्ध में सरकार उदासीन थी । पेरियार की मूर्ति टूटने पर वह वैचारक रूप से सक्रिय हुई और श्यामा प्रसाद  मुखर्जी की मूर्ति को क्षतिपहुँचाने की चेष्टा के बाद वह मुखर हुई ।क्या इस स्थिति की कल्पना पहले नहीं की जा सकती थी! राजनीति के पटल पर बारी बारी से विभिन्न दलों काशासन हो सकता हैतो एक दूसरे से बदला लेने हेतु जनता के पैसे से बनी सम्पति कोक्षति पहुँचाना कदापि उचित नहीं।बदले की इस भावना ने हिंसा भड़कायी है । यह एक अनिनार्य प्रतिक्रिया थी। किसने शह दी इन अराजक तत्वों को- यह एक प्रश्न है। और इस शह को मात भी कौन देगा? यह भी एक प्रश्न है।

यह स्थिति देश के अन्दर क्रान्ति का माहौल उत्पन्न कर रही है।यह बुद्धिजीवी जनता के मन मेंशासन व्यवस्था के प्रति घोर विरोथ उत्पन्न कर सकती है।खासकर लेनिन की मूर्ति का भारत के किसी कोने में टूटना किसी सिद्धांत विशेष के प्रति मात्र अविश्वास ही नहीं ,एक विश्वस्तरीय नेता और मानवकल्याण चिंतक के अस्तित्व के स्मृति चिह्नों की हत्या जनित अपराध है।यह इतिहास केउन चरणों का निरादर हैजिसने अपने घात प्रतिघातों से आज के बहुविचारवादी समाज की रचना की है।हर सिद्धांत एक प्रयोगात्मक दशा से गुजर कर ही भले बुरे  मानवोपयोगी अथवा अनुपयोगी की पहचान पाता है।ऐसे विभिन्नसिद्धांतों में से ही किसी खास स्थान काल से जुड़ा जनसमुदाय अपने लिये श्रेयस्कर सिद्धांत का चयन कर लेता है।ऐसा करते हुए बाकी सारे सिद्धांतों के तुलनात्मक स्वरूप को वह अपनी  दृष्टि के सम्मुख रखता है।.अतः हर सिद्धांत के कालजनित महत्व को स्वीकार कर उसे सम्मान देना हमारा कर्तव्य होना चाहिए।आज की बढ़ती मानवीय चेतना और मानवाधिकार के विशिष्ट स्वरूप के मद्देनजर लेनिन का क्रांतिकारी साम्यवाद ,कालोपरांत रक्तरंजित साम्यवाद बिल्कुल ही अप्रासंगिक है।इस अप्रासंगिकता को स्वीकार कर राष्ट्र चेतना को दूसरी ओर मोड़ने का हमारा प्रयत्न अवश्य सार्थक है पर उसका निरादर कर मूर्तियों का भंजन करना बौद्धिक समाज को कदापि स्वीकार्य नहीं होगा।

संभव तःयह कृत्य कुछ अतिवादी अनुदार लोगों का हो जो अपनी आक्रोशजनित प्रतिक्रिया को दबाने मेंसदैव अक्षम होते हैं परऐसे लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित करने की आवश्यकता है।परिणामों की चिन्ता किए बिना ऐसे संगठनों से पीछा छुड़ाना आवश्यक है । वे किसी प्रकार किसी पार्टी विशेष का कल्याण नहीं कर सकते।बदले की भावना से किये गये कार्य मर्यादाहीनता को प्रदर्शित करते हैं।बदले की अतहीन श्रृंखला बनती हैजो धीरे धीरे विवेक  को ही बंदी बना लेती है।

हम भारतीय अपनी उदारचित्तता के लिए जाने जाते हैं।कुछ गलतियों को क्षमा कर उसे अतीत की झोली में डालते जाने की हमें आदत है जबतक वे गलतियाँ हमारे वर्तमान पर हावी न हों जाएँ।मानव मस्तिष्क की प्रयोग शाला मेंसब परखे जाते हैं,वेभी जिन्होंने अतीत में गलतियाँ की और वेभी जो वर्तमान में उन गलतियों को दुहराने पर आमादा हैं।इतिहास में तो यह भी अंकित होगा।श्रेयस्कर है कि किसी अन्य की अतीत में की गलतियों के समान वर्तमान में हम गलतियाँ न करें।सभ्यता का विकास इसी पर निर्भर करता है।

आशा सहाय 9—3—2018–।

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