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अम्बेदकर—एक दृष्टि

चंद लहरें
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यह सही है कि एक वैश्विक ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व के सम्बन्थ मे व्यक्ति- व्यक्ति के मन मे पलते पृथक-प़ृथक विचारों का कोई सामूहिक महत्व नहीं होता,पर आजकल राष्ट्र के कोने कोने से अम्बेदकर की एक सौ पचीसवीं जयन्ती की गहमागहमी एवम् उनपर एक दूसरे के अधिकारों को खारिज करते हुए अपने दावे को पुष्ट करने की कोशिश मे जिस राजनीतिक उठा पटक की गन्ध आती है वह कुछ विलक्षण सी प्रतीत होती है।वे सबके सब उनके सबसे बड़े समर्थक हैं और सबसे बड़े अनुगामक भी। इसके पूर्व वेउत्तर प्रदश की भूमि पर दल विशेष के प्रतिस्पर्धी चालों के महा नायक थे।दलितोंके पुरोधा के रूप मेंएकमात्र एक दल विशेष के आदर्श महानायक थे और अन्यदलों को दलित विरोथी श्रेणी में खड़ा करने की लगातार पुरजोर कोशिश के माध्यम भी।
– पर अचानक जैसे सारे समीकरण बदल गये और वे पूरे राष्ट्रपटल के महानायक के रूप मे प्रतिष्ठित होने की होड़ के भागी बन गये। आज अम्बेदकर को अपने समीप कर हर नेतृत्व अम्बेदकर के उस व्यक्तित्व को अपने हित में भुनाना चाहता है जिसने संविधान केप्रारूप लेखन का प्रतिनिधित्व कर संविधान के स्वरूप को नयी दिशा दी ,जो भारतीय संविधान की आत्मा बनी।देश एकबार फिरसे उनके व्यक्तित्व का नये ढंग सेस्मरण और आकलन करने की कोशिश कर रहा है।यहशायद युग की माँग है,और बहुत उचित भी।
– किन्तु जाने क्यों अत्यधिक विश्रृंखल सी भावनाएँ मन मे कई प्रश्नचिह्न खड़े कर रही हैंजिन्हें उन्ही विश्रृंखल स्थितियों में ही देखने समझने की इच्छा होती है।एक महान पुरुष ,जिसने जीवन भर हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था मेंअस्पृश्यता के विरुद्ध लड़ाई लड़ी,समानता का अधिकार दिलाने के लिए लम्बा नेतृत्व किया,हरसंभव तरीके अपनाए,भले ही यह उनकी अपनी स्थिति की समाज मे अस्वीकार्यता के कारण भी थी, भेद-भाव की भावना थी, जोउन्हें सदैव आहत करती रही। पर एक भारतीय मानसिकता को,बाल्यपन से एक धर्म विशेष केदेवी-देवताओं का पूजन,—-जिसे न वे त्यागना चाहते थे न ही उनका परिवार और न समाज। वह सम्मोह्य था, उसी में उचित स्थान पाना उनका लक्ष्य भी।और बहुत सारी बाधाओं को पार कर लक्ष्य के समीप पहुँचकर हारने जैसी स्थिति क्यों आयी ? ऐसा क्योंकर हुआ!—क्या यह स्वयं से हार जाना नहीं था !–क्या यह अंततः पलायन नहीं था-!–आहत स्वाभिमान पलायन का कारण तो नहीं था!!
—- दृष्टि बार बार वहीं अटक जाती हे। इस तरह की हार को क्या संज्ञा दी जाए-।वेमुला के परिवार ने वेमुला को खोकर बौद्ध धर्म अपना लिया।यह किसकी जीत और किसकी हार थी ,समझ में नहीं आता।जीवन भर संघर्ष कर जिस धर्म में जीवन यापन किया,एकझटके से उसका मोह तोड़कर क्या मिला –क्या यह पलायन नहीं था।?हम कहते हैं जीवन संघर्षों का दूसरा नाम है और हर व्यक्ति सरल मार्गों से जीवन पथ पर नहीं चल सकता, पर ऐसे निर्णय अगर कायरतापूर्ण नहीं तो राजनैतिक साजिशों केपरिणाम तो हो ही सकते हैं।
अम्बेदकर की विद्वता, उनकी सोच यह अच्छी तरह समझती थीकि ये हिन्दू धर्म से सम्बन्धित शास्त्र ही हैं जिन्होंने वर्ण व्यवस्था और जातिभेद पैदा किए हैं अतः उन शास्त्रों को नष्ट कर देना चाहिए।तभी हिन्दू धर्म की रक्षा हो सकेगी। यह उनके मन का आक्रोश था,ऐसा नही कि वे इस सच्चाई से अनभिज्ञ रहे होंगे कि शास्त्रों को नष्ट कर देने मात्र सेमानव मन में पैठी सदियों दर सदियों की सोचऔर भावनाएँ नष्ट नहीं हो सकतीं। वे धर्म और आध्यात्मिकता पर विश्वास करते थेऔर उसे जीवन की दिशा निर्धारित करने वाले अत्यन्त प्रभावी तत्व भी मानते थे। वेइन सोचों से कभी विलग नहीं होना चाहते थे बस उस थर्म के अन्दर पलती हुई वर्ण व्यवस्था पर उन्हें घोर आपत्ति थी जिसने अस्पृश्यता को जन्म दिया ।पर अम्बेदकर की स्थितियों के दूर भीतर तक विश्लेषणात्मक समझ वाली दृष्टि ने यह क्यों नहीं समझा कि यह तत्कालीन युग की एक आवश्यकता थी जो आध्यात्मिकता केसृजन काल में समाज मे शान्तिपूर्ण योग्यताआधारित सहअस्तित्व के लिए किया गया प्रयास था।ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र को क्रमशःईश्वर के सिर ,बाहु जंघा और पैरों केरूप मेंकथन वस्तुतः समाज के एक स्वस्थ स्वरूप का प्रतीकात्मक कथन था।और अस्पृश्यता तो धीरे धीरे रहन सहन और जीविका से उत्पन्न अशौच के प्रति उत्पन्न घृणा और घृणा की कालक्रमिक विकसित पराकाष्ठा थी ।इसके पूर्व तक मानवता की भावना का लोप नहीं हुआ था।यह तो मानव पोषित घृणा थी, कोई शास्त्र विहित नहीं।अतः धर्म पर उनका प्रहार अनुचित था।मानवीय व्यवहार भावननाओं से जुड़कर कालांतर में किस प्रकार परिवर्तित होते हैं,तथाकथित अस्पृश्यों के प्रति घृणा उसका उदाहरण था।पर उस वर्ग विशेष के अस्तित्व की भी आवश्यकता थी,क्योंकि उनके बिना स्वच्छ और स्वस्थसमाज की कल्पना नहीं की जा सकती थी।एक घृणा की भावना को हटादें तोअस्पृश्यों सहितचारो वर्णों की उपयोगिता थी ।यह घृणा तो नयी सभ्यता के प्रसारके साथ स्वयमेव किन्तु धीरे –धीर हट जानेवाली थी।
— परअम्बेदकर ने जिस स्थिति को देखा ,भोगा वह अवश्य ही असह्य थी।
वर्तमान केदुःखों को वर्तमान की स्थितियों में भोगना कष्टकर तो होता ही है।अम्बेदकर के हार मानने के पीछे क्या वही भावनागत विवशता नहीं थी!—अपनी परिस्थितियों से उत्पन्न वितृष्णा की पराकाष्ठा तोनहीं थी—!जिसने उन्हें पग पग पर यह सम्बोध कराया कि वे जाति के महार हैं,सेवा वर्ग के व्यक्ति हैं और अन्य तथाकथित ऊँची जातियों से वैचारिक मतभेद इसी मूल अन्तर के कारण होता है!गाँधी, नेहरू. पटेल जैसे व्यक्तित्वों ने भी उन्हे राजनीति की मुख्य धारा में एक विशेष वर्ग के नेतृत्व की पृथक महत्ता देने में हिचकिचाहट दिखायी थी।चाहे गाँधी के विचारों में,इसका कारण,उस हरिजन वर्ग को हिन्दु समाज के विराट् अस्तित्व से जोड़कर देखने की उदारता ही क्यों न रही पर अम्बेदकर के नेतृत्व पर आँच आने का भय तो अम्बेदकर को था ही।
वह अम्बेदकर,जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल परऔर कुछ अच्छे विचारोंवाले भलेमानसों की सहायता यथा बड़ौदा के महाराजकी सहायता से विदेश जाकर अध्ययनरत हो डिग्रियाँ हासिल कीं स्वदेश आकर फिर उन्हीं के स्टेट में आकर कुचक्र में फँसे।हालाँकि इस देश में उनकी विद्वता ने उनको ऊँच ऊँचे पदों से सम्मानित कियापर तब भी सामाजिक बहिष्कार की यंत्रणा दी।कितना दुस्सह्य लगता होगा कि इस देश का हिन्दु समाज उनकी प्रतिभा का तो दोहन करना चाहता है पर अपने समकक्ष खड़ा होने नहीं देता।यह तिलमिलाहट ही वितृष्णा को जनम दे रही होगीऔर घृणा को भी।पर क्या घृणा से धृणा को मेटा जा सकता था?ये स्थितियाँ किसी को भी विद्रोही बनाने के लिए पर्याप्त होतीं।पर,व्यक्तिगत रूप से इन सबों के समवेत प्रभाव को झेलते हुए भी जिस अम्बेदकर ने हिन्दू धर्म को छोड़ना नहीं चाहा उसे सुधारने की अनवरत चेष्टाएँ की वह महान व्यक्ति अन्त में युद्धमे हार क्यों गया?
-आज अम्बेदकर सबों के लिए संपूज्यहै।इसलिए नहीं कि भारतीय संविधान के प्रारूप समितिके वे अध्यक्ष थे वरन् इसलिए कि उनका जीवन उसवर्ग के उत्थान के लिए समर्पित था जिसे हिन्दू धर्म ने अस्पृश्य करार दिया था।समर्पण के कारणभूत सत्य अपने जीवन के कटु प्रसंग तो थे ही सम्पूर्ण देश में उनकी दुरवस्था,उचित अधिकारों सेउन्हें वंचित किया जाना,सदियों सदियों से समाज के हाशिये पर खड़े रहने को विवश कर देना ,उनके विकास के मार्ग को निज स्वार्थपूर्ति के लिएअवरूद्ध कर देना,भीउनके घोर आक्रोश के मूल मे थे।पर खास बात यह थी कि इस लड़ाई को अम्बेदकर अपने जीवनकाल में सम्पूर्णतः जीत लेना चाहते थे।घोर प्रयत्न,साहित्य लेखन, भाषण,भीड़ की अगुआईआदि सभी प्रयत्न,देश विदेश का भारत की इस समस्या के प्रति ध्यानाकर्षण की सतत् चेष्टाऔर इन सबके प्रति समर्पित उनका जीवन ही संपूज्य रहा।
-यहसब तो ठीक था।विद्वता में कोई कमी नहीं थी। शीर्ष स्थानों को हासिल तो किया पर सामाजिक बहिष्कार की यंत्रणा और घृणा को झेलते हुए।विदेश जाकर पढ़ना,विशाल पुस्तकालयों मेंडूबकर विषयों से सम्बन्धित वैश्विक सोचों को विकसित करना,वैश्विक सामाजिक राजनीतिक स्थितियोंसे परिचित होना,तब के विद्वत्समाज की प्रिय आवश्यकता थी,जिससे संयुक्त होकर अपने देश का आकलन एवम् व्यवस्थाओं में परिवर्तन का संकल्प लेना प्रिय कार्यकलाप थे।अम्बेदकर इन सबसे जुड़कर भी एक और सामाजिक परतंत्रता का, दुहरी गुलामी का सतत् अनुभव कर रहे थे। उनकी छटपटाहट अपने घर की जातीय गुलामी से प्रथमतः मुक्त होने के लिए थी।तत्समबन्धित चल रहे दोनो आन्दोलनों में,सामाजिक आन्दोलन को वे प्रथम स्थान देना चाहते थे।और उन्हें घोर विरोध का सामनाकरना पड़ता था।इस आन्दोलन को दबा दिये जाने के प्रयत्नों में पंडाल तक नष्ट कर दिए जाते थे।अम्बेदकर को यह बात पचती नहीं थी।एक आन्तरिक घृणाकी तरह की भावनाएँ तत्सामयिक राजनीतिक नेतागणों के विचारों के प्रति उनके मन में पलने लगी थी।घृणा से घृणा को जीतना असंभव होता है,सिद्धांततः इसे मानते हुए भी अम्बेदकर अपने विचारों पर दृढ़ रहना चाहते थे।उन्होंने लाला लाजपत राय ,तिलक ,और महात्मा गाधी जैसे नेताओं की तत्सम्बन्धित माँगे भी ठुकरायी।उन्हें सोशल रिफॉर्म पहले चाहिये था।पर यह इतना आसान नहीं था। दो ढाई हजार वर्ष से चली आतीं परंपराएँ कुछ वर्षों के आन्दोलनों से ढहनेवाली नहीं थीं।परअम्बेदकर की तिलमिलाहट बढ़ती जा रही थी।विशेषकर अस्पृश्यो की वह कुदशा जिसमे सवर्णों पर उनकी छाया तक नही पड़नी चाहिए थी,गलियों मेचलते हुए अपनी पहचान बताने के लिएगले में मिट्टी के बर्तन लटकाने की विवशता , ताकि भूल से भी थूक आदि धरती पर न गिरे,उनके लिए असह्य स्थितियाँ थीं।( गूगल कीसहायता से अम्बेदकर द्वारा दिये गयेएक भाषण से प्राप्त जानकारी )उन्हेंअपनीपहचान बनाकर रखने की विवशता ,सवर्णों द्वारा दिए इनाम इकराम पर जीवित रहने की विवशता आदिऐसी स्थितियाँ थींजिसे अम्बेदकर जैसे जागरुक विद्वान, विद्वता की कद्र करने वालेअमेरिका इंगलैंड आदि कीजीवन दशाओं का अध्ययन करके आनेवाले विद्वान कोअसह्य प्रतीत होता था।
– उनकी विद्वता की पहचान ने स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री के रूप मेंपहचान तो बनायी हीऔर इसी छवि नेसंविधान के प्रारूप समिति का अध्यक्ष भी बनाया ।देश केलोकतांत्रिक स्वरूप में सामाजिक असमानता कोबाधक मानते हुए महत्वपूर्ण निर्णय लिए।अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए कानून बनाए ,आरक्षण का प्रावधान किया।
–निश्चय ही आरक्षण का प्रावधान करते हुए अम्बेदकर का हृदय कराह उठा होगा, क्योंकि वे दूरदर्शी थे,वे जानते थे कि यही आरक्षण भविष्य मे दलित वर्गों के पाँवों की बेड़ियाँ बन जाएगीऔर पार्टीविशेषों का हथियार भी ,विकास के मार्ग मैं बाधक भी।पर, तत्कालीन स्थितियों मेंऔर कोई चारा भी नहीं था।
— यह सब तो था ।अम्बेदकर की स्वतंत्र भारत में महान क्रियात्मक भूमिका समाप्तप्राय थी,पर उनके मन के अन्दर जड़ जमा चुकी हिन्दु धर्म के प्रति वितृष्णा उन्हें दो रूपों में चैन नहीं लेने देती थी एक तो वे कानून की व्यवहारिक सीमाएँ जानते थे कि इसके द्वारा अन्दर ही अन्दर पलने वाली यह भेद- भावना तुरत समाप्त होनेवाली नहीं ।दूसरी ओरवे कोई अन्य मार्ग अथवा धर्म को हिन्दु धर्म पर प्राथमिकता देने का मन ही मन प्रयास कर रहे थे।और बौद्ध धर्म अपनी सारी विसंगतियों ,बढ़ती हुई विकृतियों,टूटती हुई मर्यादाओं के वावजूद भी मात्र अस्पृश्यता के नहोने के कारण हीउनकी दृष्टि में वरेण्य हो गया।
— बहुत आश्चर्यजनक लगता है यह सब।अम्बेदकर—इतना बड़ा विद्वान्–,भविष्यद्रष्टा,–क्यों हार गये खुद से!!एक युग से!वह हिन्दु धर्म जिसमें समान होकर जीने के लिए वे इतने बेताब थे,जीवन भर संघर्ष किया ,जीवन के अंतिम दिनों मेंउसका मोह कैसे छोड़ दिया?सामाजिक संघर्ष के लिए एक ही युग तो पर्याप्त नहीं होता! क्यों नहीं आनेवाली पीढ़ी पर आने वालेसंघर्ष को छोड़ा? क्याउनकी दृष्टि में भविष्य का कोई नेतृत्व सुयोग्य नहीं होता? क्यों अपने साथ-साथलाखों लोगों कोबौद्ध धर्म के डूबते जहाज की राह दिखा दी!!
— क्या आनेवाले दिनों परसे उनका विश्वास बिल्कुल ही उठ गया था।?सम्पूर्ण वैश्विक सोच पर आधारित नया भारत चारो ओर की खिड़कियाँ खोलकर स्त्रियों ओर अस्पृश्यों के अधिकारों की शुद्ध हवा को अन्दर आने से कबतक रोक सकता था?क्या अपने युग के साथ ही परिवर्तन- युग की समाप्ति की कल्पना कर ली थी उन्होंने? क्या जीवन के अंतकाल की सन्निकटता देखकर उन्होंने ऐसा निर्णय ले लिया? आज शनिमंदिर एवं अन्यमंदिरोंमे स्त्रियों को पूजा पाठ,प्रवेश की अनुमति इन्हीं टूटती जंजीरों के प्रमाण तो हैं।धीरे- धीरेआनेवाले परिवर्तनों मेंशायद अधिक स्थायित्व होता है।
— क्या था अम्बेदकर के मन में? क्या यह अम्बेदकर का पलायन नहीं था? –घोर पलायन!—जिसने हरिजनों को अपना धर्म छोड़ बौद्ध धर्म की राह दिखा दी! क्या अम्बेदकर के लिए यह शोभनीय था? बस यही एक प्रश्न अम्बेदकर के व्यक्तित्व पर लगा बड़ा प्रश्न- चिह्न है जिसका कोई उत्तर संतुष्ट नहीं कर पाता।————आशा सहाय 27 -04—2016–।

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