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अवसान पर देशभक्ति?

चंद लहरें
चंद लहरें
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खबरों में बहुचर्चित,बहुविवादित और बहुप्रश्नायित खबर जे एन यू के प्राँगण में खेले जा रहे राजनीतिक अथवा देशविरोधी चेतना से सम्बन्धित खेल से है।.पुनः छात्रों की अफजल गुरु की फाँसी से सम्बन्धित प्रतिक्रियाओं की धारा मुड़ती हुई अपनी अंतिम विरोधी स्वर तक पहुँचती हुई जान पड़ती है।छात्र संघ के नायक की गिरफ्तारी ने विद्रोह को नयी किन्तु अवश्यंभावी प्रतिक्रिया की ओर मोड़ दिया है। काँग्रेस के युवा नेता राहुल गाँधी का भाषण तथा वामपंथी दलों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विश्व विद्यालय के प्रागण कोविरोध स्थल बना देना मानव श्रृँखला आदि विरोध के हथकंडे अपनाकर सरकार के प्रति विरोध प्रदर्शित करना एक अजीबोगरीब प्रतिक्रिया सी लगती है।यह उस रोहित वेमुला छात्र से जुड़ती हुई कड़ी और एक अवाँछित प्रसंग को देश मे विद्रोह की स्थिति पैदा करने और आन्दोलित करने की सोची समझी साजिश सी प्रतीत होती है।यह ऐसा विषय है जिसे जितना भी खींचा जाएगा,जितने अधिक वक्तव्य दिए जाएँगे सभी विवादित एवं स्थिति को उग्र करने में सहायक सिद्थ होंगे।
कुछ लोगों ने अगर सत्य ही देशद्रोही नारे लगाए तो प्रशासन के पास उन्हें गिरफ्तार करने के सिवा चारा भी नहीं था। हां, इस प्रतिक्रिया की आवश्यकता सर्वप्रथम विश्व विद्यालय प्रशासन को महसूस की जानी चाहिए थी।और अगर विडियो नकली है तो यह किसी पार्टी विशेष के लिए आत्महत्या करने के प्रयास के समान ही है।
महलों को बनाने मेंलम्बा समय लगता है पर उसे ढहा देना एक अत्यन्त छोटे से प्रयास अथवा भूकम्प के एक ही सशक्त झटके से संभव हो जाता है।विश्व मे प्रतिष्ठित देश की गरिमा को बनाए रखना देश के किसी भी स्तर के नागरिक का प्रथम कर्तव्य होना ही चाहिए। देशहित में सोचना इस देश के सभी नेताओं का प्राथमिक कर्तव्य है,चाहे वह काँग्रेस,भाजपा,वामपंथी दलअथवा किसी अन्य प्रतिष्ठित दल के ही क्यों नहोंहों ।विभिन्न दलों के अस्तित्व की पृथकता विभिन्न विचारधाराओं के कारण हो सकती है पर एक बात सामान्य है कि वे सभी राष्ट् का कल्याण और विकास अपने सिद्धान्तों के आधार पर चाहते हैं यही मूलभूत एकता समय समय पर उन्हें एक दूसरे से जोड़ भी देती है। एक सही राजनीति एक दूसरे के प्रति घृणा नही पालती एक दूसरे के सिद्धान्तों की खामियाँ अवश्य दिखाती हैं । लोकतंत्र की सफलता इसी तथ्य पर निर्भर करती है। पर पार्टी विशेष के प्रति असहिष्णुता की भावना बिना विचार किए,क्षण भर को बिना सोचे समझे ऐसी प्रत्येक छोटी बड़ी घटनाओं में कूदकर उसे वृहत रूप देने को आमादा हो जाती है। यह देश की स्वस्थ छवि को बिगाड़ उसे विनाश के कगार पर ला खड़े करने जैसा है।
समाचारपत्रों में दिये खबरों के अनुसार कोर्ट में वकीलों ने कन्हैया कुमार पर लगे आरोपों के विरूद्ध प्रदर्शन करने आए छात्रों को पीटा और उन्हें कोर्ट परिसर से बाहर निकाल दिया ।इतना ही नही , रिपोर्टर्स के भी साथ ऐसा ही दुर्व्यवहार किया ।यह प्रसंग जनता को उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त है।सामान्य जनता जो तथ्य से अपरिचित होती है ,सुने वक्तव्यों के आधार पर राय बनाती है।छात्रों के साथ किये इस दुर्व्यवहार के लिए अधिकारियों और वकीलों के प्रति कोईअच्छी राय नहीं बनाएगी।ये छात्र विश्व विद्यालय परिसर में जाकर राजनीति का चाहे जैसा पाठ पढ़ लें ,जिस रंग में रँग जाएँ,पर वे अपने घर परिवार के सदस्य हैं और यह दुर्व्यवहार उन्हें भड़काने में सहायक हो सकता ही है।
राहुल गाँधी की तथाकथित भाषण में दी गई अभिव्यक्ति,- कि- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीनने वाले लोग देशद्रोही हैं;अजीब है। लगता है संविधान में दी गयी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता काअर्थ उन्होंने समझा नहीं।यह प्रतिक्रिया उनकी कोई स्वस्थ छवि इसलिए नहीं बनाती कि बिना विचार किए दी गई ऐसी प्रतिक्रियाएँ घोर विरोध को आमंत्रित करती हैं।
एक युवा नेता के रूप में और एक पार्टी विशेष के उपाध्यक्ष जैसे विशिष्ट रूप में उनके द्वारा दिये गये वक्तव्यों को देशभक्ति के तराजू पर स्वयं भी तौलने की आवश्यकता है।.संभव है, राजनीतिक स्थितियाँ उनके बहुत अनुकूल नहीं,पर विरोध और घृणा किसी व्यक्ति विशेष अथवा किसी दलविशेष से तो शक्य है किन्तु जिस देश के प्रति भक्ति की शपथ ले वे देश के नेतृत्व का दम भरते हैं उसके प्रति की गई विरोधात्मक टिप्पणियों को देशद्रोह अथवा देशप्रेम की तुला पर परख कर ही वक्तव्य देना उनके लिए समुचित है। इस सम्बन्ध में की गयी हड़बड़ी किस करवट बैठेगी कहना आसान नहीं ।
जनप्रतिनिधियों को संयमित व्यवहार करने की आवश्यकता है।चारो ओर से कन्हैया कुमारकी निर्दोषिता कोआवाज देने की हड़बड़ी मेंलोग और नेतागण यह भूलजाते हैं कि न्याय और न्यायपालिका को अपना कार्य करने की इजाजत देनी चाहिए ।हो सकता हे वह बिल्कुल सही व्यक्तित्व हो,पर देश तोड़ने वाले वक्तव्यों को परखने की भी आवश्यकता है।
हमारेदेश की राजनीति आत्मघाती प्रकृति की होती जा रही है।राजनीति आज अपने ही अर्थों से च्युत होती जा रही है ।नेताओंकी स्वार्थी मनोवृति ने उसे सिर्फ र्स्वार्थनीति बनाकर रख दिया है।
राजनीति या पॉलिटिक्स का अर्थ होता हैराज्य के लिए बनाए गए वे नीति नियम जो नागरिकों के कल्याण के लिए हों।सांवैधानिक ढाँचों में नागरिक स्तर पर लोगों को अपने अनुकूल करने की विधि को पॉलिटिक्स कह सकते हैं।पर,यह शब्द अब मात्र सरकारी अथवा सांवैधानिक संबंधों तक सीमित न रहकर व्यक्तिगत स्तर पर कूटनीति केतौर पर व्यक्त किया जाने लगा है।मूलतः प्राथमिक रूप सेयह नगर ,राज्य अथवा देश से सम्बन्धित उन नीतियों के लिए व्यव्हृत है जिसके तहत नेताओं द्वारा आचरण किये गए वे नियम आएँगे जिनसे जनता का कल्याण हो सके,नगरों राज्यों का विकास हो सके; न कि वे राजगद्दी लोभी नीतियाँ,जो मार-काट मचाकर भी देश की सरकार अथवा प्रशासन को हिलाने का विचार रखता हो। इस प्रकार के उद्देश्य जहाँ वर्तमान प्रशासन के लिए खतरे पैदा कर सकते हैं,, भविष्य के किसी भी प्रशासन के लिए भी उतने ही खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं।
वीडियो क्लीपिंग अगर नकली नहीं तोदेश की आंतरिक सुरक्षा के लिएयह एक खतरनाक साजिश है।बाहर से आए हुए आतंकियों या गुंडा तत्वों का इस प्रकार विश्वविद्यालय कैंपस में प्रवेश ,विशेषकर मुँह ढँके व्यक्तित्वों का,यह सूचित करता है कि इस प्रसंग अथवा घटनाचक्र का संचालक कोई अन्य है जो कश्मीर की आजादी के संग्राम में विशेषकर लिप्त है एवं उसके साथ अन्य राज्यों को जोड़कर देश की राजनीतिक दरारों का लाभ उठाना चाहता है।इस प्रसंग में ऐसे गुंडा तत्वों को पहचान कर उनके साथ न्यायिक कारवाई करना आवश्यक भी प्रतीत होता है।
यह विश्वविद्यालय प्रशासन की बहुत बड़ी विफलता है कि आरोपी उमर खालिद या अन्य बाहरी व्यक्तित्व जब छोटे-छोटे समूहों में मीटिंग कर रहे थे तो उनकी गतिविधियाँ अदृश्य क्यों रहीं ,रोक क्यों नहीं लगायी गयी, विधिवत् प्रशासन को सूचित क्यों नहीं किया गया। देशविरोधी गतिविधियाँ इसी प्रकार आश्रय पा जाती हैं।या कि,अभिव्यक्ति की आजादी की उन्हें असीमित छूट दे दी गई?इस संबंध मेंयह प्रश्न उठना आवश्यक है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी इतनी दूर तक जाती है,कि, देशविरोधी नारे भी लगाए जाएँ।अगर हाँ तोअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या है?देश के विषय में सार्वजनिक स्थल पर कुछ भीबोलना उसके बाँट देने की बातें कर देना क्या इसके अन्तर्गत हो सकता है?तब तो देश की आन्तरिक एकता पर सबसे बड़ा खतरा है।देश का संघीय ढाँचा इस आन्तरिक एकता पर ही टिका हैऔर यही इस देश की शक्ति भी है।
आज भाषण के जरिए या बोलकर जिस विरोध को घृणित रूप दे रहे हैं कल उसके लिए आतंक का रास्ता भी अपनाया जा सकता है इसदेश को एकसूत्र में पिरोने के लिए की गयी कड़ी मेहनत किसी से छिपी तो नहीं फिर इसे बिखेर देने की आजादी किसी को कैसे दी जा सकती है?अतः अलगाववादी विचारों को परे रखने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की प्रक्रियाओं को अपनाने मे कोई हानि नहीं।
अपने देश की राजनीति गर्त में जाती हुई प्रतीत होती है,जब ऐसे प्रसंगों में हमारे महानायक नेतागण पत्रकार गण अराजक तत्वों की भाषा बोलने लगते हैं,। कहाँ चली जाती है उनकी वह देशभक्ति जिसका दम भरकर वे कदम कदम पर,और छोटे छोटे मसलों पर हंगामा करते नजर आते हैं?
न्यायालय केबाहर पत्रकारों के साथ किए गए दुर्व्यवहार क्षम्य नहीं हैं ।अकस्मात् उसे अनुचित ही कहा जा सकता है क्योंकि वे देश की राजनीति के ठोस स्तम्भ हैं पर आज न वे तटस्थ हैं नअब उनसे ऐसीआशा की जा सकती है।घटनाओं को राजनीतिक रँग देने में अपनी तटस्थताजनित विशेषता को वे ताक पर भी रखने से नहीं चूकते ।परिणामतः जिस सम्मान के वे हकदार हैं वह उन्हें नहीं मिल पाता।जनमत निर्माण से पूर्व निजमत का आकलन तो उन्हें करना ही होगा।
हर जगह भावनाओं की पवित्रता, तटस्थता,और निष्पक्षता की आवश्यकता है। चाहे दल कोई भी क्यों नहों, निज दल के निहितार्थों की रक्षा के लिए देशभक्ति जैसी भावनाओं की कुर्बानी कदापि नहीं दी जा सकती ।यह बात जे. एन. यू से सिद्धांततः जुड़े उन दलों के लिए अवश्य कही जा सकती है जिनके लिए अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी कहा जाना कोई मायने नही रखता । जिनके लिए उनके सिद्धांतों की आड़ में पोषित होनेवाले देश विरोधी वक्तव्य भी क्षम्य हैं।ऐसे दलों पर अगर आरोप होता है कि वे आन्दोलन करवाते हैं,अस्थिरता पैदा करवाने के लिए,जनता और सरकार का ध्यान मुख्य मुद्दों से भटकाने के लिए; तो सोचने को विवश होना पड़ता है कि,क्या देशहित में इनकी कहीं कोई सीमा नहीं होनी चाहिए?क्या लोकतंत्र इस प्रकार कटघरे में खड़ा नहीं हो जाता ?जनता अगर प्रबुद्ध हो तोऐसी साजिशें उन्हें भटका नहीं सकतीं पर इनकी जघन्य आपराधिक स्थितियोँ पर मात्र जनता की जागरुक आँखें काबू नहीं पा सकतीं,उसके लिए सरकार को शक्तियों और सख्तियों का प्रयोग करना ही होगा।यह हमारे देश की विवशता होती जा रही है।अन्यथा साजिशें कामयाब होती चली जाती हैं।
देश की पारंपरिक संस्कृति और विचारधारा संकट के समय पारस्परिक विरोध को भुलाकर एक हो जाने की है ।मात्र यही विश्वास एक आशावादिता का पोषण करता है,कि देश की गरिमा पर आँच नहीं आने देने का संकल्प सब ओर से रक्षित हो सकेगा।—-

आशासहाय 23 02 2016—।

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