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आरक्षणः-मेरी समझ से

चंद लहरें
चंद लहरें
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हम भारतीय भ्रमित हो गये हैं ।जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी शासन व्यवस्था नेअपने प्रभावों से हमें उद्वेलित किया है पर शासन की”–फूट डालो’ की उनकी नीति ने हमारे राष्ट्र और हमारे जनजीवन पर अंतहीन प्रभाव छोड़ दिया है। और कुछ किया या नहीं पर स्वतंत्र भारत केअस्तित्व को फूट की आग मे झोंक अवश्य दिया गया।एक ऐसी दिशा दिखा दी जो ऊपर ऊपर से तो मानव हितों की ओर जाती थी पर अंदर ही अंदर सम्पूर्ण भारतीय समाज को वैमनस्य की आग में झोंकती जा रही है।यह थी भेद भाव रोकने के नाम पर भेद भाव पैदा करने की कला ।और हम फँस गए।

आज राष्ट्र की अनगिनत समस्याओं में अभी जो देश में उथल पुथल मचाने को आमादा है, वह है आरक्षण से जुड़ी समस्या।आरक्षण शब्द हीअनायास मस्तिष्क में खुदबुदाहट उत्पन्न कर देता है। यह शब्द आया क्यों राष्ट्र पटल पर।? कौन जिम्मेवार है इसके लिए?।यह एक आवश्यक प्रावधान होना चाहिए क्या-भारतीय संविधानमे? क्या इसकी कोई समय सीमा नहीं हो सकती ,आदि आदि।देश में सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए विकल्पों की संभावित तलाश की दृष्टि से भी और उपरोक्त अन्य दृष्टिकोणों से भी आरक्षण पर पुनः विचार करना समीचीन प्रतीत होता है।

यों तो भारत की सदियों पुरानी वर्ण व्यवस्था से उत्पन्न सामाजिक और आर्थिक विषमता ने जब बौद्धिक वर्ग का ध्यान आकर्षित करना आरंभ किया तो सामाजिक आंदोलनो के जरिये उपाय खोजे जाने लगे थे । सन्1882 से ही हंटर आय़ोग और महात्मा ज्योतिराव फूले के शैक्षिक संस्थानों एवं सरकारी संस्थानों में आरक्षण की माँग की शुरुआत के साथ समय समय पर क्रमशः1909, 1919के सुधारों के क्रम मे आरक्षण का प्रावधान होने लगा। पर1933 के पूनापैक्ट मे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के द्वारा अंततः दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आबंटित कर दिए गए। और एक सिलसिला शुरु हो गया।

1942 में ही बी आर अम्बेदकर ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की माँग की सशक्त शुरुआत की। फिर कैबिनेट मिशन की आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रस्तावना और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय संविधान मे दस वर्षों के लिए इन अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना और पृथक निर्वाचन क्षेत्र आबंटित कर देना इस आरक्षण रूपी रोग के विकासक्रम की अति संक्षिप्त स्थितियां रहीं। इस सम्पूर्ण विकास क्रम को अंग्रेजी शासन व्यवस्था से जोड़कर देखना अनुचित नहीं होगा।उन्होंने 1933 में ही सिखों के लिए भी अलग से निर्वाचन क्षेत्र को प्रस्तावित कर उनमें भी अलगाव की भावना भरनी शुरू कर ही दी थी। गाँधी जी की दूरदृष्टि ने इस अस्वीकार किया था।

ऐसा नहीं है कि पिछड़े वर्गों, दलितो,या अनुसूचित जाति, जनजातियों के विकास के प्रयास से बौद्धिक वर्ग को इनकार होना चाहिए था ,पर वर्गभेद नष्ट करने के नाम पर उनके मन में अनायास ही वर्गभेद की राजनीति के बीज वपन कर दिये गये थे।

वस्तुतः तात्कालिक परिस्थितियों मे दूरगामी परिणामों की एकपक्षीय चिन्तना ने उन स्थितियों की कल्पना नहीं की जो आज उपस्थित हो रही हैं ।यह एकपक्षीय चिन्तना यह थी कि इस प्रकार उनके आगे बढ़ने का मार्ग निरापद रूप से प्रशस्त कर दिया जाए।भारतीय समाज की उस समय की वर्ण भेद से सम्बन्धित घृणास्पद ,जटिल, जिदभरी जातीय भेद भाव की ,स्वार्थी सोच इन्हें आग बढ़ने से न केवल रोक रही थी बल्कि सदियों पीछे की ओर ढकेल देना चाहती थी ।ऐसी स्थिति मे संविधान और कानून के जरिये समाज में इनकी स्थिति सुदृढ़ करने का प्रयास भी उचित था ।अगर एक निश्चित समय तक यह अवसर प्रदान कर पुनः उन्हे स्वय सक्रिय होने की राह दिखा दी जाती तो पूरे समाज में भेदभाव की आग नहीं लगती।

अब आज यह आरक्षण जहाँ एक ओर साँप छूछूँदर जैसी गति उतपन्न कर रहाहै – वही नयी नयी समर्थ जातियों द्वारा भी आरक्षण की माँग जोर पकड़ने लगी है। यही वह दूसरे पक्ष की अदूरदर्शिताका परिणाम है। यह एक सतत् प्रक्रिया हो गयी है। यह वह आग हो गयी है जिसमें कोई सत्तासीन अथवा विरोधी दल जलना नहीं चाहता।

समता केअधिकारों के तहत,विशेष प्रावधान में,अनुसूचित जातियोंऔर जनजातियों को दिए गये आरक्षण,विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व उनके कल्याणार्थ,आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करने हेतु था। किन्तु आरक्षित होकर जीने की आदत उनके अन्दर के आत्म विश्वास ओर स्वाभिमान को निश्चित रूप से ठेस भी पहुँचाने का सबब भी बन ही सकती है। यह एक बड़ा संकट भी है कि जो वर्ग आरक्षण का उपभोग निरंतर करता आ रहा है,अपने वास्तविक स्वाभिमान को खोता जा रहा है।एक व्यक्ति और जाति के रूप में उसकी पहचान आरक्षित व्यक्ति और जाति के रूप में है । वस्तुतःयह स्वाभिमान देश की सम्पति है और एक बहुत बड़ा जनभाग इसे छोड़कर आरक्षण की कृपा से आगे बढ़ना चाहता है,अपनी बुद्धि ,चातुर्य और ज्ञान को प्रतियोगिता स्तर पर लाने की आवश्यकता ही नहीं समझता।यह चिन्तनीय है।

आरक्षण प्रतियोगिता की भावना को समाप्त करता है।सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए इस प्रकार के हथकंडे तबतक ही उचित ठहराए जा सकते हैं जबतक वे मध्यम वर्ग की सीमा को न छू लें।

आज स्थितियां विषम होती जारही हैं।आरक्षण की सुविधा प्राप्त और आरक्षण की ईच्छा रखने वाली जातियाँ अपने को पिछड़ों में परिगणित करना चाहती हे, और इस प्रकार गैर स्वाभिमानी ढंग से जातिगत स्वाभिमान हासिल करना चाहले हैं। यह देश के लिए हतोत्साहजनक स्थिति है
स्वतंत्रता के इतने वर्षों पश्चात् भी दलितों की स्थिति मे वांछित सुधार नहीं आ सका है जबकि कानूनन वे सुदृढ़ हो चुके हैं।सामाजिक भेदभाव की गुंजाइश नहीं हो सकती। यह अपराध की श्रेणी में आता है।, प्रत्येक नागरिक इस तथ्य को समझता है फिर कारण क्या होसकता है?—ऐसा लगता है कि मात्र नौकरियों में आरक्षण देना ही पर्याप्त नहीं है । यह सामाजिक उत्थान की गारंटी नहीं दे सकता। इसके लिए उनकी सम्पूर्ण जीवन शैली को बदलना आवश्यक है,उनका रहन सहन, खान-पान,और विशेषकर उनके विचारों में आत्मविश्वास से भरे सकारात्मक परिवर्तन की आवश्यकता है।

बिरहोर एक आदिवासी जनजाति है।यह एक घुमंत जाति है जो परंपरागत ढंग से जीवनयापन में विश्वास करती है। रस्सियाँ बुनना मधु निकालना उनका परंपरागत पेशा है सरकार ने इनके संरक्षण कें बहुविध प्रयास किए हैं पर कोई भी आरक्षण इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में पूर्णतः सक्षम नहीं हो पारहा है।कारण, इनकी अपनी चेतना और प्रयास का अभाव है। शहरी जीवन से उनकी अरुचि और अविश्वास उन्हें विकास के मार्ग पर नहीं ला पा रही और यह जाति नष्ट होने के कगार पर है। आखिर क्यों?

यह प्रश्न जागरुकता या चेतना का है। यह चेतना समुचित शिक्षा की मांग करती है।.हम जिन्हें आरक्षण देना चाहते हैं,उनके लिए आरंभ से हमें प्रयत्नशील होना होगा उन्हें खान पान,शिक्षा दीक्षा की निःशुल्क सेवाएँ प्रदान कर घर से विद्यालय तक का सफर तय करवाना होगा,जहाँ वे प्रतियोगितात्मक शिक्षा हासिल कर सकें और प्रतिस्पर्धा की भावना का विकास कर सकें, स्वयं आगे आने को सचेष्ट हो सकें। ईमानदारी से किए गए ऐसे प्रयत्नों के बाद कुछ समयोपरान्त आरक्षण की सुविधा की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए।

कठोर प्रतिस्पर्धा में उन्हें डालना ही होगा अन्यथा उनकी प्रतिभा कभी खिलेगी ही नहीं और अनन्तकाल तक वे सरकारी पोषण पर ही जीना चाहेंगे। इस बदलाव के लिए एक निश्चित समय सीमा ही उन्हें देना होगा।

एक विडंबना यह भी है कि अपनी निःशक्ता के कारण वस्तुतः आरक्षण का लाभ वे नहीं ले सकते,जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत है। लाभ उन्हें मिलता है जो पहले से आर्थिक रूप से सशक्त हैं।–अतः आरक्षण का एक संयुक्त आधार आर्थिक भी होना ही चा हिये ,ताकि ध्यान पूर्णतः अशक्त लोगों पर ही केन्द्रित हो।

आरक्षण भेद भाव पैदा करता है। भेद भाव मिटाने के लिए जहाँ दुनिया के सारे विकसित देश प्रयत्नशील है ,रंग, लिंग, जातिगत भेदों को मेट सबको जीने का समान अवसर प्रदान करते हैं और इससे सम्बन्धित विभिन्न अधिनियमों के द्वारा हर तरह के भेद भाव को मिटा भी दिया है,हमारे यहाँ इस आरक्षण ने भेद –भाव का बढावा देकर पूरे समाज को अगड़े,पिछड़े,दलित महादलित,सवर्ण और अवर्णआदि श्रेणियों में विभक्त कर समय समय पर उनको व्यर्थ ही आक्रामक बनाने का खेल खेलना शुरू करदिया है।

अगर आरक्षण विकास का आधार बन सकता है,तो निरंतर की इसकी प्रक्रिया तथाकथित अगड़ों को पिछड़ी कतार में खड़ी कर सकती है और तब उन्हें भी आरक्षण की माँग करते हुए देखा जाना अचम्भे का विषय नहीं होना चाहिए।आज सरकारी नौकरियों मे योग्यता के बल पर स्थान पाना कठिन होता ही जा रहा है।परिणामतः प्रतिभा का पलायन भी हो रहा है।क्या ये नयी समस्याएँ नहीं हैं।?

कुछ राज्यों ने तत्सम्बन्धित पहल दिखलाते हुए आर्थिक आधार पर उन्हें भीआरक्षण का लाभ देने का निश्चय किया है। यह एक सकारात्मक कदम तो है पर इस प्रकार समस्याओं का हल होता नहीं दीखता। आरक्षण की सीमा उच्चतम न्यायालय के द्वारा दी गयी सीमारेखा को लाँघ चुकी है।और अब यह कौन से नये मापदंड अपनाएगी, कहा नहीं जा सकता।

आरक्षण माँगनेवाली जातियाँ अब इतनी सशक्त हो चुकी हैं कि वे अब डंडे कीजोर से भयभीत कर आरक्षण मनवाना चाहती हैं ,देशव्यापी प्रदर्शन से दहलाना चाहती हैं।प्रश्नहै कि नेत़ृत्व और संगठन की पुरजोर ताकत वाली ऐसी जातियों को आरक्षण की क्या आवश्यकता।? उन्हें तो स्वनियोजन की आवश्यकता है।अपनी बुद्धि को रचनात्मक क्षमतामें लगाना है।

महाविद्यालयों में ,तकनीकी विद्यालयों में आरक्षण एक पृथक मुद्दा है, जिसका पक्ष कमजोर और विपक्ष सशक्त प्रतीत होता है। फिर भी शिक्षा में आरक्षण एक आवश्यकता है और यही वह सही कदम है जिसके द्वारा देश के पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति ,जनजाति,या दलित महादलितों को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है।भारत सरकार ने इनके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कानून के जरिये धार्मिक और विशेष भाषा जनित विद्यालयों को छोड़ कर सभी सरकारी और निजी शैक्षिक संस्थानों में पद और सीटें आरक्षित कर दी हैं।जहाँ तक पदों की बात है, इसे सम्पूर्ण योग्यता के साथ जोड़ा जाना अनिवार्य है अन्यथा शैक्षिक विकास की हम कल्पना तक नहीं कर सकते ,हाँ छात्रों का प्रवेश किसी भी स्थिति में वर्जित नहीं होना चाहिए।

शिक्षा के सम्बन्ध में इतना बार –बार कहा जा सकता है कि आरक्षण ही नही, अनिवार्यता को सतत् बनाए रखने की आवश्यकता है।, जीवन शैली में सुधार के लिए निरंतर प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है। हर क्षेत्र मे जागरुकता के लिए सचेष्टता की आवश्यकता है और इनसबों के लिए एक निश्चित समय सीमा के तहत सरकारी प्रयासों के पश्चात् यह जिम्मेवारी बौद्धिक वर्ग और स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा उठाये जाने की आवश्यकता है।तभी जातीय भेदभाव और उन्माद पैदा करने वाले आरक्षण के प्रति मोह भंग हो सकेगा और स्वस्थ प्रतियोगिता का माहौल उत्पन्न हो सकेगा।

हम अब मात्र आशा ही कर सकते हैं।

आशा सहाय 3 -10 2015–।

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