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इच्छामृत्यु किसके लिएऔर क्यों

चंद लहरें
चंद लहरें
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भारतीय चिंतन में प्रत्येक मनुष्य का जीवन अमूल्य और इसको समाप्त करना अपराध मानागया है।पर इसीजीवन के क्रमिक विकास में रुग्णावस्था की ऐसी स्थिति भी आसकती हैजब यह निर्णय लेना आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति के शरीर और आत्मा को क्यों नमुक्ति प्रदान कर दी जाए।यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण किन्तु उतनाही विवादास्पद विषय है।इस निर्णय में स्वयं रोगी ,उसके परिवार के सदस्य भी सम्मिलित हो सकते हैं।पर उनकी सहमति कितना मायने रखती है,यह एक सोचने का विषय हो सकता है।जघन्य अपराधियों को फाँसी की सजा दी जाती है।पर एक रोगी अपराधी नहीं होता।वह रोग के असह्य कष्टों से मुकत होना चाहता है परिणामतः इस प्रकार की इच्छा कर बैठता है। उसकी आन्तरिक इच्छा स्वस्थ होने एवं सामान्य जीवन व्यतीत करने की होती है।
एक अन्य प्रश्न उठता है कि यह इच्छमृत्यु किसके लिए?और कब दी जाए।
–क्या तब जब रोगी अपनी तकलीफों से परेशान होकर मृत्यु की माँग कर बैठे?
–या तब, जब चिकित्सक रोग की चिकित्सा करने में असमर्थ हो जाए।रोगी के स्वस्थ होने की एक प्रतिशत भी उम्मीद न हो।
–, परिवार के उन सदस्यों के लिए, जोरोगी की देखभाल और,व्ययभार उठाने में असमर्थ हो जाएँ , तब—
–रोगी की सामाजिक भूमिका शून्य हो औरपरिवार के लिए उसके अस्तित्व अनस्तित्व का कोई अर्थ भी नहीं हो।
–अन्य वे कौन सी स्थितियाँ सकती हैं जिसमेंचिकित्सक द्वारा सक्रिय या निष्क्रिय इच्छामृत्यु दे दी जाए।

-गहरे कोमा की स्थिति में चले जाने वाले रोगीऔर कैन्सर जैसी असाध्य अथवा लाइलाज स्थिति में पहुँच जाने वाले रोगियों के संदर्भ मेंयह प्रश्न ऊठता है।पहली कोटि का रहना ,न रहनापरिवार के सदस्यों के लिए क्रमशः अर्थहीन हो जाता है ,पर तब भी कोमा में गए व्यक्ति के लिए यह कहना संभव नहीं होता किवह कोमा से वापस नहीं ही लौटेगा ।हो सकता है कि अनगिन वर्षो के पश्चात वह कोमा से वापस लौटकर परिवार और समाज में अपनी लक्रिय उपस्थिति दर्ज करा ले।ऐसी स्थिति मॆ उसे सक्रिय या निष्क्रिय मृत्युदान देना क्या हत्या के बराबर अपराध नहीं?
ठीक उसी प्रकार कैन्सर से पीड़ित असह्य पीडाको बर्दाश्त करने में असमर्थ रोगी ,जो पल पल मृत्यु के समीप हुआ रोगी सारी निर्दिष्ट थेरेपियों के प्रतिक्रियाहीन हो जाने केबाद चिकित्सकों केनिराश हो जाने के पश्चात् परिवार के सदस्य भी उत्साहशून्य हो जाते हैं।सामान्य और निम्न मध्यमवर्ग परिवार के सदस्य भी चिकित्सा व्यय भार वहन में असमर्थता अथवा व्यर्थता का अनुभव करनेलगतेहैं तो सक्रिय इच्छामृत्यु की दिशा मेंउनकी सोच जा सकती है,रोगी और परिवार दोनों को कष्टभार से मुक्त करने कीदिशा में उनकी यह सोच नितान्त भौतिकवादी यथार्थता से जुड़ी ही हो सकती है।पर, तब भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है किचिकित्सा जगत की असमर्थता क्या उस तिल तिल मरते व्य़क्ति की ईच्छा जाने बिना ही ऐसा निर्णय कर सकती है? व्यक्ति को अंतिम स्वाभाविक साँस तक जीने का अधिकार है।इसअधिकार की रक्षा के लिए चिकित्सा जगत को अपना सारा श्रम और विश्लास धैर्यपूर्वक लगाना होगा ।अपनी निराशा रोगी के मन पर नहीं थोपनी होगी ताकि एक आशा के साध वह अंतिम साँस ले सके।इस महत्वपूर्ण कार्य में परिवार,समाज,सरकार,और चिकित्साजगत को एक साथ मददगार होना होगा।सभी पक्षों पर विचार करने केउपरांत ऐसा लगता है कि सक्रिय इच्छामृत्यु किसी भी प्रकारहमारे समाज और मानव हित में मान्य नहीं होसकता।
-अगर आत्महत्या अपराध की कोटि में आता है तो इच्छामृत्यु प्रदान करना भी उसी कोटि के अपराध में परिगणित होना चाहिए।

आशा सहाय–।

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