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कौन है वो

चंद लहरें
चंद लहरें
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कौनहै वो
बदलना चाहता जग को-?
परम्परा पोषी,
आरूढ़ अपने विगत पर
जिद्दी हैं हम।,
सारे सनातन सत्य
हम हैं ढूँढ़ते उनमें
मिटती हुई औ,
कदाचित भग्न होती जो
परंपराएँ सुनहले स्वप्न सी
टूटती है,
फूटती हैं
चूकती हैंबंद हाथों से।

पर,
अचानक
एक टुकड़ा हस्तगत कर
हम फिर बना लेते
महल।
जोड़ लेते पुनः
मोहता है वहीकि जैसे
काँच हो रंगीन कोई,
या कि,श्वेत दुग्ध हो कोइ
लघु संगमरमर।
इतस्ततः
फिर बनाते उसी से
रंग बिरंगी बुर्ज औ,फ़िर,
अट्टालिकाएँ।
पालते सपने उन्हीं में
हो रहे अनजान उन
संधि रेखाओं से बरबस,
आत्ममुग्ध,तबतक
बिखरतेनही
स्वप्न सारे जागते आँखों में ही
जबतक।

कौन कहता है
कि हम थकते नहीं
संघर्ष करते
भोगते नहीं ताप मन का?
छूटता आग्रह नहींफिर
देखना मुड़ मुड़ के पीछे.
भागना,, उनको पकड़ना
छूटते जो जा रहे
जागते मन की पकड़ से।

भींच मुट्ठी..
तान सीने
फिर उन्हें पाने को हो संघर्षरत
पूरे जमाने।.

कौन कहता है कि बदलो।
हम परम्पराओं को भूलें
क्या नहींअपनी पराजय ?
क्या नहीं अस्तित्व हिलता?
कौन है जो निकल लेता
इस मधुर व्यामोह से
कौन कहता है कि बदलो
अपनीबनी पहचान से।
,
।।……………………..
क्यों नहीं हम लड़ें
भिड़ें,औ,
अनसुनी कर दें पुकारें??
वे जो कहते
मत करो तुम भंग मेरी
शान्ति जो जन जन की प्यारी?
राजनीति है यही
बस राज्य से विद्रोह करना
नीतियों को ताक पर रख
स्वार्थ का अलगाव भरना
जंग भड़काना औ, भिड़ना
है ये आदिम जँगलीपन
कौन कहता है परन्तु,
सभ्यता का नहीं यही है
सांस्कृतिक देशज
पैमाना?

है आदिम आरजू यह
कसमसाती देह भी तो।
नित्य ही शान्ति रही तो
किस विथि होगी भला
बल विक्रम आजमाना?
हम परम्परापोषी जगत में
है नहीं आसाँ भुलाना
कौन कहता है कि बदलो,
आज है बदला जमाना

आशा सहाय

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