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क्या यह गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य है?

चंद लहरें
चंद लहरें
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गोदान का ‘होरी’ महतो बनने की महत्वाकाँक्षा पालता था,जिसकी खेती किसानी के  साथ दरवाजे पर गाएँ बँधी होंऔर वह ग्रामीण समाज का नायक बन सके। समाज मेंउसे प्रतिष्ठा चाहिए था।दरवाजे पर हुक्का रखा हो ,गाएं हों और खेती के अनाज के बखार लगे हों।

किन्तु वह तो कम से कम दो सौ साल पुरानी बात हो गयी।आज गाँवों में भी इज्जत के मानदंड बदलने लगे हैं।लोग हाथों में डब्बे लटकाकर दूध लेने के लिए उनके दरवाजे खड़े रहते हैं घण्टों –जिनके घर में गाएँ होती हैं और जिनके स्नेहिल कर्मठ हाथगायों के थन से दूध दुहते रहते हैं।जिन्होंने माथे पर गमछा बाँध रखा हो ,सर्दी या गर्मी हो  नियत समय पर दूध देने को तैयार रहते हैं।किन्तु घण्टों हाथ बाँधे वहाँ खड़े रहने के वावजूद भीवे अपनी और उनकी सामाजिक स्थिति में सदैव फर्क बताते हैं।आखिर वह दूध बेचनेवाला ग्वाला हैचाहे उस दूध बेचनेवाले ने दुमहले ही क्यों नहीं खड़े कर लिए हों।

यह बदली हुई मानसिकता हैवैसी ही जैसी कभी जमीन्दारों और किसानों में होती थी।फर्कसिर्फ इतना है कि दोनों में अब परवशता का अभाव है।यह वर्ग भेद की मानसिकता कहीं नही जाएगी।

जो डाइनिंग टेबल पर खाना खाते हैं ,सजे धजे सोफे पर बैठते हैं,दस से चार बजे तक किसी न किसी आफिस स्कूल और कॉलेज में काम करते हैं ,वे अपने को उस दूधवाले साधारण से ग्वाले से अलग मानते हैं क्योंकि वह जमीन पर पीढ़े पर बैठ खाना खाता है चौकी पर स्वयं बैठता और लोगों को बिठाता है,खटिये पर या चौकी पर सोता है। इनदोनों की मानसिकता में अँग्रेजियत और हिन्दुस्तानी का स्पष्ट अन्तर है , ग्रामीण और शहरीपने काअन्तर  है।

आज यही मानसिकता समाज का शत्रु बन बैठी है। इस वर्ग भेद को मेटने के लियेसमाज के महत्वाकाँक्षी युवक वैध अथवा अवैध तरीके से बड़े बड़े अफसरो,राजनेताओं का दरवाजा खटखटाते हैं ,बड़े बड़े बिजनेसमैन के दरवाजे खटखटाते हैं कि चन्द रुपयों के मासिक वेतन पर नौकरी चाहिए।वे स्वयं बिजनेस नहीं करना चाहते।उन्हें एकबारगी बड़ा बन जाना है,दिखावे की जिन्दगी जीनी है।जरा उनसे यह पूछिए कि  ये बिजनेसमैन जिनकी नौकरी उन्हें चाहिए ,आखिर इतने बड़े बिजनेसमैन बने तो कैसे?क्या सबों के पास आरम्भ से इतनी सम्पत्ति थी?

आज कोई ‘होरी’ नहीं बनना चाहताक्योंकि होरी का अन्त अत्यन्त कारुणिक प्रसंग  है।किन्तु इस बदले जमाने में होरी की इच्छाएँ पालना ,दो गाएँ पालनाऔर उससे समृद्धि के दरवाजे खोलने की संभावना तो है। बहुत नहीं ,पर थोड़े की कामनापूर्ति तो हो सकती है। एक व्यवसाय से दूसरे में जुड़ा तो जा सकता है।

मुझे त्रिपुरा के सी एम विप्लव देव का यह कथन अच्छा प्रतीत होता हैकि अपने जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को नौकरी की भागदौड़ में न लगाएँ युवक । संभव हो तो गाएँ पालें।अपनी आजीविका के लिए और समृद्धि के लिए।उन्होंने ठीक ही कहा किग्रेजुएट होने के बाद वे ऐसे कार्य नहीं कर सकते।,

यह हास्यास्पद होगा ठीक उसी प्रकार जैसे –पढ़े फारसी बेचे तेल।किन्तु यह अत्यधिक संकीर्ण सोच है।यह सर्वविदित है कि देश में नौकरियों की भरमार  नहीं है।और यह तो दासत्व है। दासत्व के लिएइतनी भागदौड! स्वतंत्र व्यवसाय ही अंतिम उपाय है।

दूध की बात पर विशेष बल देने का प्रयोजन इसलिए है कियह भारतवर्ष की पुरानी गौरव गाथा से जुड़ा है।कहा जाता है कि यही वह देश है जहाँ कभी दूध की नदियाँ बहती थीं।दूध । सर्वश्रेष्ठ आहार।दही, पनीर, घी, खीर और जाने कितनी तरह की मिठाईयाँ।दूध के लिए चाहिए-गाएँ और भैंसें।

बात सिर्फ इतनी है कि सजे धजे सँवरे , श्वेत श्याम परिधानों में सजे आज के युवकों को गाएँ और भैंसों का स्पर्श तक अच्छा नहीं लगता। हाँ !कोई बना बनाया कारोबार मिल जाए तो बात और है।

चाहिए आराम की जिंदगी।और इसी के लिए इतनी भागदौड़, मारपीट, प्रशंसा- निन्दा ,राजनीतिक उठापटक और सबकुछ। किन्तु विप्लवदेव की ये बातें  पार्टी विशेष और प्रधानमेत्री जी को इसलिए नागवार लगी हैंकि इस तरह के बयानों से तत्काल  युवकों को नौकरी मुहैय्या करवाने के वादों को ठेस लगेगी।ये बयान एक मंत्री के बयान नहीं सलाह कार के बयान से प्रतीत होते हैं।पर आखिर मोदी जी के मन की बातोंके सम्बोधन में भी तो उनकी आधी भूमिका सलाहकारों जैसीही तो  होती है।समाज को सही दिशा देने में  इस तरह की बातें गैर जिम्मेदाराना  ठहराना ही अनुचित प्रतीत होता है।गायों का पालना स्वरोजगार की दिशा में बढ़ता कदम ही तो होगा।

हाँ महाभारत काल में गूगल और इंटरनेट के होने का कथनअवश्य ही गैर जिम्मेदाराना है।जो समकक्ष शक्ति संजय को प्राप्त थी वह योग के द्वारा प्राप्त हो सकती है।आज भी ऐसी असाधारण दृष्टि कुछ लोगों को प्राप्त हो जाती हैजो दूरस्थित ,घटित घटनाओं को देखने में समर्थ होती है।पर इसे इन्टरनेट की संज्ञा दे देना आज की वैज्ञानिक उपलब्धियों का अवश्य ही अपमान है।

 

आशा सहाय 2-5-2018

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