चंद लहरें
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थाली में है पुष्प सजा,
अगुरु गन्ध,दक्षिणा द्रव्य,
मैं ढूँढ़ रही वह गुरु महान।
वह कौन गुरू,
हर ले जीवन का तम तमाम?
किसके चरणों में ढूँढू मै
अपने जीवन के स्वप्न ललाम?
साधना बना यह जीवन है
साधक स्वयं हूँ मैं जीवन का
पल-पल देखा भ्रमजाल ,कुहा
पथ ढूँढा खुद,
खुद साधा लक्ष्य,
निज आत्मा में मै झाँक रही,
निभृत कोने में कहीं गुरु?
है दृश्य नहीं अदृश्य है वह,
अनुभूत सत्य है जीवन का,
संकल्प हुए पूरे उससे
कर दूं अर्पित सारी श्रद्धा,
मेरे मन काअप्रतिम गुरु वह!!
थाली के सारे पुष्पों से,
अगुरु गंध से पूज उसे
गुरू पूजन मैं सम्पन्न करूँ?
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