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ढूँढते समरस जहाँ(प्रश्न काव्य)

चंद लहरें
चंद लहरें
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ढूँढते समरस जहाँ क्यों वर्ग वर्ण नृजातियों मे
आज भीक्या उन करों में चमक कटारों की नहीं!?
क्यों कटारें चमकती है
क्यों है उजड़ी धरा
क्यों लहू के लाल रँग पर
है जमाना यों फिदा
गोलियाँ क्यों दहकती है
क्यों बिछी लाशें वहाँ
मँडराते गिद्ध क्यों है
अब जहाँ उनकी है क्या?
ढूँढते समरस जहाँ हम
हो नहीं जिसमें द्विषा
पर हमी तो जीव गण को
बाँटते फिरते यहाँ।
गाय किसकी ,बैल किसके
भेड़ किसके भैंस किसकी
किसकी हैं ये बकरियाँ।।
बहुत पुरानी बात हैजब
ढोर के पीछे थे हम
आज चमकती गाड़ियों मे बैठ
उन्हीं को ढूँढते।
क्यों हैं सुनसान गलियाँ
गाड़ियाँ सड़कों पर क्यों
धुआँ उगलती गाड़ियाँ
दोष फिर गलियों का क्या।?
पांव छोटे हो गए क्या
बाहुओं में बल कहाँ
नित्य छोटे हो रहे हम
कदम नापते नहीं जहाँ।
झाँकते अंतरिक्ष में हैं
अधछुयी धरती रही–
एक धरती रुदन करती
दूसरी का हश्र क्या।।
रोक लेंगे वह प्रलय क्या
शेष जब कुछ भी नहीं?
रोक भी लेंगे तो कैसे
श्री विहीन धरती हुई।
एक वह कमजोर वृद्धा
ज्यो तरुण पर हँस रही
बाहुएँ वे काटते हैं
रक्त रिसता डालियों से
डालते जब मन का कीचड़
सूखता नदियों का दिल
सिसकती है हर नदी
नष्ट हुई उनकी त्वरा।.
पर्वतों का खंड करते
मौसमों को हम बदलते
क्यों नहीं सन्तुष्ट होते
प्रकृति की हरीतिमा से!
छीलते है रोज उसको
क्रोड़ भवनों से क्यूँ भरते ।.।
मृतिकाऔर लौह केउपयोग
सारे बदल गये
खुरपियाँ और कुदाल के
दिन पुराने लद गए।

ठोस की पूजाहै क्यों
चेतना क्यों सिसक रही?
चेतना के द्वार खोलो
ऊर्ध्व मानस को दिशा दो
हर कही समभाव देखो
विश्व को समरस करो।।

आशा सहाय 7—6—2017-

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