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तोड़ती अभिमान धरती

चंद लहरें
चंद लहरें
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महाप्रकम्पन
यह धरा का
क्या किया तुमने कहो,
क्यों नहीं रोके वे झटके
हिल गये क्यों एक साथ ?

क्रोध धरती का तो देखो
एवरेस्ट भी काँपता
टूटते उसके शिखर भी
बात हम तुम सब की क्या?

है बड़ा अभिमान खुद पर
रोक सकते कोप हम,
ज्ञान औ`विज्ञान विकसित
एक झटका सह सको गर,
तोड़तो अभिमान धरती

है बड़ा संकल्प उसका
एक करवट लूँ विकल
ध्वस्त कर दूँ कल्पनाएँ
मैं गर होऊँ अधीर

रोक दे गर निर्झरों को
नद-नदी का मोड़ दे मुँह
रोक देगा किस विघ तू
इस प्रकम्पन को भला!

चूमता आकाश को है,
बाँधता तू है समंदर
प्रलय बनकर चंद लहरें
हो गईँ उद्विग्न गर
लील जाएँ सभ्यताएँ
सुन न पाएँ दंभ के स्वर।
किस नज़रिये से मै देखूँ
,चूमती मीनार धरती
ध्वस्त होते गुम्बदों को

मन्दिरों औ` मस्जिदों को?

क्या नही समभाव प्रकृति का
हर पुरातन को है ढहना
ध्वंस के अवशेष पर ही
जन्म लेती नई दुनिया ?

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