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दलित नहीं कहें

चंद लहरें
चंद लहरें
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नित्य एक युवक की आत्महत्या कीखबरें समाचार-पत्रपर,न्यूज चैनलों पर देखकर मस्तिष्क कुछ आन्दोलित सा हो रहा है ।बहुत सारे प्रश्न अनायास ही खड़े हो रहे हैं। अपने देश के संविधान की किंचित उपेक्षाजनित संकीर्णसोच भी सामने आ रही है।
वह युवक दलित था। उसे चार अन्य छात्रों के साथ विश्वविद्यालय ने निष्काषित कर दिया।बाकियों ने तो नहीं पर उसने आत्महत्या कर ली।एक सुसाइड नोट भी लिखा उसने। आन्दोलन हुए, कई विचारधाराएँ उभरीं,और अन्ततः विश्वविद्यालय ने निष्काषण केआदेश वापस कर लिये। बहुत विलंब हो चुका था ।
बहुत सारे दृष्टिकोण उभर कर सामनेआने लगे।
—एक छात्र का निष्काषण क्यो?
—दलितों का निष्काषण क्यो ?
—दलगत राजनीति का परिणाम था यह?
—सुसाइड नोट काइंगित क्या हे?
–क्यावह विद्रोही था ,अगर हाँतो क्यो ?
क्या उसकी स्वतंत्र विचारधारा राष्ट्र विरोधी थी?
किसी दल विशेष की विरोधी थी?
उसने सीधे राजनीति में हिस्सा क्यों नहीं लिया
क्या विश्व विद्यालय में पढ़नेवालेछात्रों की देश में घटनेवाली घटनाओं से सम्बद्ध प्रतिक्रियाएँ युवकोचित नहीं?
–प्रतिक्रियाएँ क्षम्य नहीं हो सकती थीं.?
—क्या वह विश्वविद्यालय में अराजकता फैला रहा था?
–अगर हाँ, तो निष्कासन अनुचित क्यों था.
ये प्रश्न अत्यन्त साधारण से हैं जिन्हे पढ़कर प्रबुद्ध मानस को झुंझलाहट भरी हँसी भी आसकती है. परअपने आप में महत्वपूर्ण भी, क्योंकि सारे विवाद इन्ही के ईर्द गिर्द घूमते हुए सम्पूर्ण राष्ट्र में एक आन्दोलन की स्थिति उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त हो गये।
नाम था-रोहित वेमुला। फेस बुक पर चर्चित था।वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा उसके पोस्टों के माध्यम से उसकी उस विचारधारा को स्पष्ट किया था जो मुख्यधारा के राष्ट्रीय एजेंडे के भीषण विरोध से ओतप्रोत था।उसने याकूब मेनन को फाँसी देने का विरोध किया था। वह ओर उसके साथी भाजपा और काँग्रेस दोनो को उच्चवर्गीय ब्राह्मणवादी अत्याचारी मानते थे और मौत की सजा को शासक वर्ग के प्रभुत्व का प्रदर्शन मानते थे।यह विचार धारा कोई ऐसी अप्रत्याशित नयी भी नहीं । जनता का एक बहुत बड़ा भाग फाँसी की सजा को अमानवीय मान यह तर्क देता है कि यह सजा आज के युग मे अप्रासंगिक है क्योंकि यह अपराधी को सुधरने का अवसर नहीं देकर उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर देती है ।समाज को उससे क्या मिलता है –बस एक भय, जो उसे अपराध से विरत कर देता है।
— यह सब ठीक है, पर एक विद्यार्थी जिसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति उसेअपने उद्येश्य से भटकने की अनुमति नहीं देती,अपने उद्येश्यपूर्ति के पश्चात् देश की खुली राजनीति में हिस्सा ले सकता था,उसने ऐसी भूल आखिर क्यों कर दी।विश्वविद्यालय में प्रवेश के अपने मूल उद्येश्य को उसने विस्मृत कैसे किया । वह विज्ञान विशेषज्ञ बन लेखन करना चाहता था। एक गम्भीर शोधार्थी अपने मार्ग से भटका कैसे—वह राजनीतिक स्थितियों मे हस्तक्षेप करने को विवश क्योंकर हुआ? कहीं उसके अन्य साथियों नेआवश्यकता सेअधिक विरोध की भावना तो नहीं भर दी!
— उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर शायद प्रश्न में ही सन्निहित हो सकतेहैं। फिर भी,विवरण और व्याख्याओं की तो आवश्यकता होती ही है।
— रोहित बेमुला-विज्ञान शोधार्धी;—हो सकता है उसकी उपलब्धियाँ देश को गर्वित करतीं,चमत्कृत करतीं,उसे विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया।यह आघात था उसके लिए,और निष्कासन के पश्चात भी विद्यालय परिसर में रहना ,कुलपति को पत्र लिखना उसके पक्ष में सोचने को विवश करता है। बिना अच्छी तरह स्थितियों को समझे हुए, उसकी सम्पूर्ण पृष्ठभूमि का आकलन किए बिना मदद से इन्कार कर देना अवश्य ही एक गलत कदम था।परिणाम स्वरूप जन्म से लेकर अबतक की अपनी सम्पूर्ण विवशता भरी परिस्थितियों से घबराकर घोर निराशा में उसने आत्महत्या कर ली।
— जहाँ नवयुवकों में उत्तेजक भावनाओं का होनाआम बात है,वहीं इन भावनाओं के लिए इन्हें क्षमा कर देने की भी आवश्यकता होती है।उन्हें उनकी स्थितियों सेअवगत करा सही दिशा देने की भी आवश्यकता होती है चाहे वे दलित हों या अदलित।जातिगत मुद्दा बनाने के पूर्व सबकी सम्मति पृथक रूप में लेने की भी आवश्यकता थी।और अगर सभी विद्यार्थी दलित वर्ग के थे ,तो विद्यालय प्रशासन को और अधिक सावधान होने की भी आवश्यकता थी।
— आत्माभिव्यक्ति का अधिकार विद्रोही स्वर को लाख सत्ताविरोधी होने पर भी दबा देने का अधिकार कदापि नहीं देता।हो सकता हैउस विद्रोही स्वर में सामाजिक वैचारिक चेतना की कोई विवेकपूर्ण नई लहर हो,जिसकी अनदेखी करना एक स्वस्थ लोकतंत्र के अनुकूल नहीं। जब बड़े बड़े विश्वविद्यालय इस प्रकार की भूल कर सकते हैं,तो मीडिया को भी स्थिति को मनमाने ढंग से उछालने की स्वतंत्रता होती है ,ऊछले हुए कीचड़ से स्वस्थ मानस भी क्यों न प्रभावित हो जाए।देश हित को देखते हुए अविचारित फैसले लेने का दुष्परिणाम किसी न किसी को तो भुगतना ही पड़ेगा। आक्षेप व्यक्तिविशेष अथवा दलविशेष पर आ ही सकता है।

— 23 जनवरी को आई प्रधान मंत्री मोदी जी की प्रतिक्रिया कि देश ने अपना एक लाल खो दिया—में एक स्वीकृति कारणस्वरूप राजनीति की संदिग्ध लिप्तता के प्रति भी है।यह स्वीकृति जहाँ उनके व्यक्तित्व की स्वच्छ झलक देती है,वहीं राजनीति का इन सारी आत्म हत्याओं में लिप्तता की संभावनाओं से इनकार नहीं करना एक स्वस्थ पहल सा प्रतीत होता है।
— सबसे अधिक विचारणीय विषय है दलित शब्द का हर अवसर पर कुछ जाति विशेष के संदर्भ में प्रयोग।इस शब्द पर हमें आपत्ति होनी चाहिए।यह शब्द मात्र आरक्षण के संरक्षण के संदर्भ में सर्वाधिक व्यव्हृत होता है।जो विद्यार्थी अपने इतने उग्र विचारों को समाज,राज्य के सामने प्रस्तुत करने में नहीं झिझकें ,न ही,डरें ,ऐसे सशक्त व्यक्तित्व को हम दलित की कोटिमें परिगणित क्यों करें,वे क्यों दलित कहलाने के अधिकारी हों। वे कभी दलित थे पर आज नहीं।
— सच पूछिये तोआज वे दलित कहलाने का अधिकार खो चुके हैं और समाज का जागरुक वर्ग भी उन्हें सामान्य नजरिये से देखना चाहता है।इतने बड़े राष्ट्र में इस भावना का स्वतःस्फूर्त होना इतना सहज तो नहीं पर संविधान ने उनकी स्थिति काफी सुदृढ़ की है।
— अम्बेदकर ने इंगित किया था कि जो दलित हैं, अस्पृश्य हैं उन्हें अपने व्यवहार बदलने होंगे,रहन-सहन का प्रकार बदलना होगा,शिक्षा के प्रति जागरुक होना होगा,स्वच्छता केनये मानदंड अपनाने होंगे तभी उन्हें अदलित के रूप में स्वीकार्यता मिलेगी। हालाकिअम्बेदकर जैसे विद्वान व्यक्ति को भीअनगिनत बाधाओं का सामना करना पड़ा था,अकथ संघर्ष करना पड़ा था। पर वह युग कोई और था।आज इन सभीशर्तों को वे पूर्ण करने को प्रयत्नशील हैं।
— स्वतंत्रता पूर्व डॉ अम्बेदकर की अगुआई मेंशूद्रों,अछूतों,दलितों का सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश के लिए ,मन्दिरों ,कूओँ आदि के व्यवहार के लिए किया गया महाविद्रोह अब स्वतंत्रता पूर्व की ऐतिहासिक घटनाए हैं।स्वतंत्रता के पश्चात का संविधान इन विद्रोहों के घावों से त्रस्त होकर ही परिष्कृत हुआ है।अब जनमानस से इन शब्दों को हटा देने मे हीदेश का उत्थान निहित है।सारा विश्व आज इस भेदभाव से मुक्त होना चाहता है।पर हम हैं कि मानस के किसी कोने मे आज भी प्रच्छन्नरूप से इसे जीवित रखना ही चाहते हैं। खुलकर उन्हें सामान्य मानव समुदाय में सम्मिलन की सहमति की सौ प्रतिशत देने में कहीं चूक जाते हैं।और तब शुरु होती हैं इस प्रकार की गड़बड़ियाँ।किसी के मन का बुरी तरह आहत हो जाना, विरोध के स्वर ,आत्महत्या कीघटनाएँ।
—इस स्थिति को एक दूसरी या यों कहें कि मनोविश्लेषनात्मक दृष्टि से देखना भी गलत नहीं होगा कि बार बार उन तथाकथित दलितों में यह भाव जाग्रत करना किवे दलित हैं, वे महादलित हैं और समाज अभी भी उनके प्रति अत्याचारी है,उनके दलित बोध को प्रश्रय देता है,उससे मुक्त होने नहीं देता।उनपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव बना उन्हें सामान्य कोटि में आने नहीं देता।
— उनमें स्वाभिमान की भावना भरनी है। यह अति आवश्यक है।जहाँ तक आनुवंशिक स्वाभिमान की भावना का प्रश्न है, समय अभी बहुत परिपक्व नही हुआ है,किन्तु अर्जित स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। एक लम्बी लड़ाई लड़कर समाज में जो जगह उन्होंने बनायी हैउसकेप्रति सर्वसामान्य के मन में सम्मान की भावना होनी चाहिए।उनके विकास के सभी मार्ग खोलने होंगे,खोलने चाहिए, किन्तु,दलित और आरक्षित जाति कहकर उन्हें समाज की मुख्यधारा से काटने एवं इस प्रकार अपमानित करने की चेष्टा कदापि नहीं होनी चाहिए।
— आज संविधान उनके साथ भेदभाव की इजाजत नहीं देता,पर राजनीतिक चातुर्य इन्हें अदलित होने नहीं देता।दोबड़े-बड़े अवसर और मुद्दे हैं राजनीति की झोलीमें, जो महा अस्त्र हैंऔर जिसे संविधान ने ही उदारतापूर्वक प्रदान किया है –अल्पसंख्यक और दलित-जिसका उपयोग राजनेता देशहित को ताक पर रखकर हर मानी बेमानी मौकेपर करने से नहीं चूकते।गणतंत्रता के छियासठ वर्ष बाद तो कम सेकम इन मुद्दों को जीवित नहीं रहने देने का संकल्प लेना था।पर, ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय राजनीति के साथइन दो विषयों का सम्बन्धअटूट है।
— हम भारतीय आशावादी हैंऔर आशावादिता कहती है किइस समस्या का निराकरण भी देश और समाज के भीतर से जातिवादिता का जहर फैलानेवाले नेताओं केप्रति विरोध और विद्रोह की भावनाकेद्वारा ही हो सकेगा।तत्सम्बन्धित आन्दोलन होंगे और ऐसे नेताओं को जनता ही हाशिए पर ला खड़ी करेगी।स्थान स्थान परऐसी शुरुआत एक सकारात्मक कदम सा प्रतीत होता है।

आशा सहाय 01—02—2016—।

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