चंद लहरें
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धूप निर्झर है,
फूटती अन्तस से फिर-फिर
मेघ शिलाओं के सघन।
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मेघ , निश्छल मुग्ध प्रिय
लरजते हैं पहाड़ों पर
जकड़ते स्नेह बंधन में अचल।
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और, पर्वत बाहुएँ आकाँक्षा की
पायी नहीं समेट धरती भी जिन्हें
अन्तर की गुहाओं में ।
आशा सहाय-
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