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नवयुग निर्माण की ओर ‘सुप्रीम कोर्ट’

चंद लहरें
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यह सच है कि देश काल के अनुसार बना हुआ कानून समय के साथ अपनी महत्ता खो बैठता है।वह परिवर्तन के योग्य हो जाता है।विशेषकर देशकाल के सांस्कृतिक प्रभावों में बना कानून मानव अधिकारों के प्रभाव मेंआकर प्रभावहीन हो जा सकता है।भिन्नभिन्न स्थानों की संस्कृतियाँ पृथक हो सकती हैंपर जीवन जीने का अधिकार आत्सम्मान की रक्षाकरते हुए सम्पूर्ण विश्व की माँग है। सारी तिलमिलाहट मानव समुदाय में इसलिए पैदा होती है कि  यदा कदा उसके इस अधिकार को रौंदा जाता है।राष्ट्रभाव से हटकर हम जब विश्व भाव के संदर्भ मेंमानव समुदाय को देखते हैं, उसकी मूलगत भावनात्मक आवश्यकताओं पर दृष्टि डालते हैं ,तो यह बात स्पष्ट हो जाती है।हमारे दृष्टिकोण मानवतावादी हो रहे हैं।जीने काअधिकार सबको समान मिलना चाहिए यह बात अब दिन की प्रखर रोशनी की तरह एक विशेष दृष्टि दे रही है।स्त्री पुरुष के दो रूपों मे मानवसमुदाय को विभाजित करने के दिन लद चुके हैं। इस मानवतावादी दृष्टिकोण के तहत भारतीय सुप्रीम कोर्टने हाल में कई ऐतिहासिक निर्णय लिए हैं और हमारी सामाजिक सोच को खँगालने की कोशिश की है। अभी कुछ ही दिनों पूर्व समलैंगिक ,उभयलैंगिक सम्बन्धों को लेकर एल जी बी टी से सम्बद्ध जो निर्णयउसने दिया है वह समाज के लिए एक गाइडलाइन है, सामाजिक सोच मे सुधार लाने की कोशिश है।उसका स्वर मानवप्रधान है ,इसबात से बेपरवा किसमाज की पारंपरिक सोच उसे किस दृष्टि से देखेगी।ये फैसले उन्हें मनमाना जीवन जीने की स्वतंत्रता देते हैं।इन्डियन पैनेल कोड की धारा497 को असंवैधानिक करार कर कोर्ट ने पुनः एक ऐतिहासिक कदम उठाया है।विवाह पश्चात स्त्रियों का किसी अन्य से सम्बन्ध रखना व्यभिचार माना जाता रहा है। यह मान्यता स्त्रियों के संदर्भ में है। पुरुष इस आरोप से मुक्त रहा है।कोर्ट ने कहा है कि पति पत्नी का मालिक नहीं होता। दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। स्त्रियों का विवाह के पश्चात अन्यों के साथ सम्बन्ध बनाना अपराध नहीहै,अतः दंडनीय  नहीं है।आपसी सम्बन्ध समाप्तप्राय होने पर ऐसे सम्बन्ध बनाना अपराध की श्रेणी में नहीं आते।हाँ तलाक केलिए यह कारण स्वरूप इसे प्रस्तुत किया जा सकता है।

समाज की पुरुषप्रधान मानसिकता के खिलाफ यह फैसला युग -क्रान्तिकारी हैऔर इसका स्वागत किया जा रहा है।स्वागत इसलिए नहीं कि इससे व्यभिचार के लिये नारियाँ स्वतंत्र हो गयीं । व्यभिचार तो अब भी व्यभिचार ही होगा क्यों कि नैतिकता और अनैतिकता की परिभाषा न्यायालय नहीं आदमी का अन्तर्मन निश्चित करताहै और समाजके परीक्षित नियम निश्चित करते है। न्यायालय ने सिर्फ अधिकार की बात की है और समानता के सिद्धांत को तार्किक स्वरूप प्रदान किया है।यह निश्चय ही बुद्धिजीवियों के द्वारा स्वागत किया जानेवाला कदम है।यह देश जहाँ सम, विषम लैंगिकता ,जिसे सदैव अनैतिक सम्बन्धों के रूप में देखता आ रहा था, एक झटके में मानवीय अधिकारों केक्षेत्र में नये युग में प्रवेश कर गया और अपनी सोच को उस दिशा में मोड़ने को विवश हो गया, ऐसी स्थिति में यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण है।

स्त्रियों के लिए स्थितियाँ हमेशा ही विषम हो सकती हैं।परिवार में पति द्वारा विश्वास नहीं प्राप्त होना ,  अत्याचारों  से प्रताड़ित हो अलग रहने को विवश होना ,  पति के द्वारा लगातार अवहेलना किया जाना ,और स्वयं अनेक स्त्रियों के साथ संबंध बनाते रहना पर विवाह विच्छेद न कर समाज में अपने लिये सम्मान बनाए रखनाआदि कुछ ऐसी स्थितियाँ हो सकती हैं ,जिससे उसका जीवन दुष्कर हो जाता है।अगर उच्छृंखलता कारण न हो  तो बहुत सारी स्थितियों में यह उनका सहायक हो सकता है।

प्रश्न सिर्फ हमारे सामाजिक ढाँचे और जीवन पर पड़नेवाले प्रतिकूल असर का है ,अन्यथा ऐसा सामाजिक जीवन बहुत सारे देशों में जिया जाता है ,जहाँ विवाह पूर्व अथवा विवाह पश्चात अनेक सम्बन्ध बनाना ,अनेक सन्तान प्राप्त करना कानूनन अपराध नही ।हमारी दृष्टि में यह असंयम की पराकाष्ठा है क्यों कि हमारी दृष्टि और सोच सामाजिक रही है, हम मानव को समाज और परिवार से जोड़कर देखते हैं अकेले एक व्यक्ति के रूप में नहीं।सुप्रीम कोर्ट ने अन्यदेशों चीन ,जापान,आस्ट्रेलिया, ब्राजील और अनेक एशियाई अथवा पश्चिमी देशों का  हवाला देते हुए कहा हैकि इस तरह का संबंध बनाना अपराध नहीं।

अब प्रश्न हमारे देश का है। क्या उपरोक्त देश सांस्कृतिक रूप से हमसे अधिक समुन्नत हैं। ?या कि सभ्यता की पराकाष्ठा उसी विचाधारा मे है?क्या पुनः हम जंगल राज्य की और नहीं मुड़ रहे?भारतीय समाज विचारों में बहुत आगे बढकर व्यक्ति को प्रधानता देकर भी व्यवहारों मे अपने प्राचीन आदर्शों का परिपोषक है । उसने  अहिल्या और रेणुका जैसी नारियों को अकारण दंडित किया है। सीता को अकारण बनवास दिया है। पर प्रश्न  यह भी है कि क्या आदर्शों के ऐसे उदाहरणों को हमने सही माना? हम आज भी उसकी आलोचना करते हैं।

अर्थात प्रश्न अगर स्त्रियों के अधिकारों का है, उनकी स्वतंत्रता का है,सदियों से पुरुषों की मिल्कियत की तरह जीवन बितानेवाली स्त्रियों का अपने विषय में स्वतंत्र निर्णय लेने का है,तो न्यायालय ने सम्मानजनक निर्णय दिया है।स्वभावतः ही यह उन्ही पर लागू होगाजो पति के अत्याचारी व्यवहार अथवा मनमाना जीवन जीते हुए एकपत्नीव्रत का निर्वाह नहीं करता हो,तब भी पत्नी को पीड़ित करता हो,घर मं बन्दी जैसा जीवन जीने को विवश करता हो।ऐसी अमानवीय स्थिति से उबरने के लिए अन्य से सम्बन्ध जोड़ना कानूनन गलत नहीं है , यह राहत देने वाली बात है।यह अलग बात है कि पत्नी परिवार नामकसंस्था को बनाए रखने को इच्छुक है अथवा अनिच्छुक ,यह निर्णय उसे ही करना है।

कानून ने आधुनिक विश्व के अनुसार नारी स्वातंत्र्य को मान देते हुए समानता के सिद्धांतों के आधार पर उसकी रक्षा की है।समानता का पूर्ण दर्जा दिया है।अगर यह उच्छृंखलता की श्रेणी में आता है तो पुरुषऔर स्त्री दोनों के लिए ही।नहीं , हम जंगल राज्य की और नहीं बढ़ रहे । आज की नारियाँ इसका अवश्य स्वागत करेंगी।तब भी,हमारा आदर्श परिवार नामक संस्था का संरक्षण ही है।सबरीमाला मंदिर में एक आयुवर्ग की स्त्रियों केप्रवेश पर लगी सदियों पुरानी रोक को हटाकर भी  न्यायालय ने सोच के नये युग का प्रारंभ किया है।

 

आशा सहाय 29-9-2018  ।

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