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हिम पर्वत पर पहुँच कभी की
लिख आई अपनी जय-गाथा
लिए पताका
अंतरिक्ष को छूकर आई
फहरा आई विजय-पताका,
कोई कोना
नहीं अछूता,
सरस्वती वह
ज्ञानस्वरूपिणी,
है दुर्गा वह शक्तिरूपिणी,
होता है जन-जन नतमस्तक
पद-पूजित है
घर-घर में वह
भारत की बेटी मनस्विनी,
संस्कृति की भी वही संरक्षिका,
स्वाभिमानिनी
सुचिर पुरातन।
किन्तु हाय!
है आज दाँव पर
उसकी ही अमूल्य अस्मिता।
नहीं सुरक्षित घर आँगन में
आज कहीं वह
घर के बाहर,
ट्रेन बसों में
खेत-खलिहान,गली कूचों में,
पुरुष वही जो
पुत्र औ भाई,
वह शिकार लोलुप दृष्टि की
डॉक्टर हो या कोई सिपाही।
माँ रोये,आँसू पी जाए
मुख में आँचल ठूँसे,चीखे
क्रन्दनकरे सिसकियाँ भरकर
चुप चुप बेटी,
मर्यादा है।
मर्यादा तो छलना है बस
पर्दा तो बस झीना है वह
दे ऊँगली से फाड़ उसे
स्वाभिमान के आड़ न आए।
अपनी शक्ति को पहचानो
आज नपुंसक न्याय न माँगो
न्याय कहाँ?
किससे औ, कैसे
अपराधों का?
रोग जो मन का
कैसे कोई मुक्ति पाये
भय से या
समृद्ध ज्ञान से,
नैतिकता के शुचि प्रसार से?
किन मूल्यों का मान रखें
वह, न्याय तंत्र–
जो है कगार पर खड़ा
स्वयं अवमूलयन के?
ले स्वयं हाथ में बस कटार,
भंजन कर दे फिर सर इनका।
हम नित्य दम्भ करते
विकास का,
कैसा ये दम्भ
कैसा विकास
जब है अशांत नारी का मन?
लाख बना ले
महल दोमहल,
ऊत्तुँग शिखर से छू ले नभ,
लाख पहन ले सोने हीरे
घर को कर दे कँचन कँचन,
नहीं प्रकाशित मन का कोना
नहीं कभी है विकसित होना।
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