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पर्यावरण और मनःतरंगें

चंद लहरें
चंद लहरें
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विश्व स्तर पर मनाया जानेवाला पर्यावरण दिवस 5 जून, हर वर्ष आता है और बीत जाता है ।सम्पूर्ण विश्व इस सन्दर्भ में कुछ सोचने को विवश होता है, जागरुकता से सम्बद्ध छिटपुट प्रयास होते हैं ।।प्रत्येक देश अपने हिस्से की सोचों और तद्जनित प्रयासों को गति देता है।पर, इस दिवस की गूँज मानस में बनी ही रहती है।इस दिवस का उद्देश्य भी कुछ अंशों में यही है।
इस दिवस की प्रतिक्रिया में, दो चार पौधे रोप देने मात्र से कर्तव्य की इतिश्री ऊँची समझ और सोच वाले लोग भी समझ लिया करते हैं पर इससे हम अपने पर्यावरण का किस हद तक भला करते हैं;यह विचारणीय विषय हो सकता है।जो संदेश इस दिवस के माध्यम से हम सम्पूर्ण देश को देना चाहते हैं, उसके मूलभूत तथ्यों को समझना भी आवश्यक होता है।
पर्यावरण–,परि +आवरण-यानि चारो ओर का आवरण,एक देश अथवा पूरे विश्व के स्तर पर।
यों तो अपने इर्द गिर्द की हवा,जल, पेड़ पौधे ,धूल से ढँकी आकाशीय स्तिथियों,आदि के ;सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभावों को हम पर्यावरण प्रभावों के अन्तर्गत परिगणित करते है,उसे दूषित अथवा स्वच्छ श्रेणियों में विभाजित करते हैं,सम्पूर्ण विश्व के पर्यावरण की हमें चिन्ता होती है कि विभिन्न विनाशकारी गैसों के आधिक्य से कही पृथवी के चारो ओर का वह आवृत स्तर न नष्ट हो जाए,जिसे वैज्ञानिक ओजोन लेयर की संज्ञा देते हैं;जिसके किंचित भी नष्ट अथवा घनेपन के कम होने की स्थिति में खतरनाक सूर्य –रश्मियाँ हमे अपनी बेखौफ मारक शक्तियों से प्रभावित कर सकती हैं।. अभी अभी की विकट विनाशक गर्मी का कारण पर्यावरण विशेषज्ञों ने इसे भी माना था ।

हम जिन प्रदूषणो से अपने पर्यावरण की रक्षा करना चाहते हैं वे वायु,जल.ध्वनि औरमिट्टी (soil) से सम्बद्ध हैं।, वृक्षारोपणऔद्योदिक और घरेलु कूड़े का उचित प्रबंधन,सुरक्षित औरपर्याप्त जल संसाधन को बनाए रखना,जलसतर को गिरने से रोकना,जल स्रोतों को घरेलुऔर औद्योगिक गंदगी से बचाना,वन संरक्षण, वन्यजनतु संरक्षण,जनसंख्या नियंत्रण,वाहन नियंत्रण, धुँएँ पर नियंत्रण,बचाव,रासायणिक खादों का कम से कम प्रयोग आदि सभी क्षेत्रों में हम प्रभावकारी कदम उठाना चाहते हैंऔर उठा भी रहे हैं ।
यह विश्वजनीन चिन्ता आधुनिक मानवों के लिए अत्यंत सही है,पर हम अपनी उस भारतीय चिंतन को नहीं नकार सकते जिसमें हमारी सकारात्मक और नकारात्मक सोच भी पर्यावरण को प्रभावित करती है।देश के विकास में अन्यतम योग दे सकनेवाला पर्यावरण इससे स्पष्ट ही निर्णयात्मक रूप से प्रभावित होगा।
प्राचीन ऋषियों ने मंत्रों के दर्शन किये थे।मंत्रों से दैवीय शक्तियों का आवाहन किया था।हवनों शक्से उन्हें तुष्ट कर आह्लादित करते हुए या कि उनपर सकारात्मक प्रभाव डालते हुए अपनी समस्त समस्याओं के हल के लिए उनसे शक्ति अर्जित की थी। एक विशिष्ट सोच के जरिये सुदीर्घ आयु और ईच्छा-म़त्यु तक प्राप्त की थी। वेमंत्र थे,कुछ विशिष्ट ध्वनियों केसमकक्ष, समरूप उच्चरित स्वरूप।वे मंत्र ध्वनि-तरंगों के रूप में अंतरिक्ष का भ्रमण कर उनके साध्य को सिद्ध करते थे।उनसे सिद्धियाँ प्राप्त होती थीं। उन ध्वनि तरंगों की सम्र्पूर्ण शक्ति से आज वैज्ञानिकों ने विश्व के सारे क्रियाकलापों को बाँध लिया है।पर,उससे भी अधिक सूक्ष्म शक्ति है चिंतन की,जिसकी ओर हमारा ध्यान आर्य सभ्यता केआदिकाल में हीगया था।यह मनःतरंगें थीं जिसकी शक्ति से हम सम्पूर्ण विश्व मायाको अनुभूत कर सकते थे,।
हमारा चिंतन भी मनः कंपन उत्पन्न कर मनः –तरंगों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रभावित करता है ।ये मन की ध्वनियाँ होती हैं।मन आकाशतत्व है,और येमनःध्वनियाँ अपने नकारात्मक और सकारात्मक स्वरूपों के जरिये सम्पूर्ण पर्यावरण पर दोनों तरह के प्रभाव डालती हैं।

आज पर्यावरण को पूरी मानव जाति के अनुकूल करने के लिए तरह तरह के प्रयत्न किये जा रहे हैं पर क्या हमने कभी सोचा हैकि बहुराष्ट्रीय सोच वाले बड़े-बड़े नगरों की मानसिकता ही प्रदूषित हो गई है? शुद्ध,विवेकपूर्ण व्यवहार की जगह प्रतियोगितापूर्ण अस्वस्थ मानसिकता जगह लेती जा रही है,सोच को विकृत कर रही है।
युवा वर्ग जिसपर सबसे अधिक पर्यावरण संरक्षण का भार होना चाहिए,एक जहरीली मानसिकता का शिकार होता जा रहा है। युवाओं का पारिवारिक ,सामाजिक ,राष्ट्रीय अथवा राजनीतिक स्तर पर जागरुक होना आवश्यक है, पर इस सबके पीछे एक स्वस्थ विचार धारा का होना भी अत्यन्त आवश्यक है।यह स्वस्थ विचारधारा, जिसे उन्हें अपने अन्तर से उद्भूत करना होता हैआज बलात् कृत्रिम रूप से राजनीतिक पार्टियों की विचारधारा में फँस गई प्रतीत होती है।उचित अनुचित की विवेकशीलता कापरित्याग कर जब ये युवा उन विचारधाराओं का संवहन करते हैं,तो वे अस्वस्थ मानस-तरंगों का निर्माण करती हैं,जो वातावरण को कम अस्वस्थ नहीं करतीं।अस्वस्थ विचारधाराओं का विरोध करना,स्वस्थ मानसिकता अवश्य है पर उसकी बुनियाद आत्मा की आवाज होनी चाहिए न कि मात्र विरोध करने के लिए विरोध की भावना। यह ध्यातव्य है कि आत्मा कीआवाज कभी गलत नहीं होती।
मन्दिरों,मस्जिदों गुरुद्वारों में प्रवेश करते ही, तीर्थस्थानों के करीब आते ही मन शुद्धता की ओर तीव्रता से अग्रसर होने लगता है,एक शान्ति का एहसास होता है,यह भी मनःतरंगों का ही चमत्कार होता है।अब लोग वहाँ भी गंदगी लेकर जाते हैं।चारो ओर वाह्य कचरोंके साथ मन की गंदगी अब वहाँ के वातावरण को भी अशुद्ध करती जा रही है।अशुद्धि के बहुत सारे अन्य तत्वों के साथ ही , मन की ये तरंगें भी एक कारक तत्व होती हैं।
मन की इन स्थितियों पर नियंत्रण केप्रयास तो स्वयं ही करने होंगे।विचारों कोनिरंतर विवेकतुला पर तौलने होंगे और यह अत्यंत आवश्यक भी है।योग की क्रियाएँ विभिन्न आसन और प्राणायाम भी बहुत सहायक हो ही सकते हैं पता नहीं,आज कै युवा इसे कितना महत्व दे पाएँगे।
हमेंऐसा लगता है कि किपर्यावरण शुद्धि के लिए हमें मनःशुद्धि की ओर, ,वैचारिक शुद्धि की ओर ,बौद्धिक स्तर पर कदम बढ़ाने ही होंगे। बौद्धिकता भारतीयता की प्रथम पहचान है।हम जिन मानस ध्वनियों और तरंगों को संकेतित कर रहे हैं वे अगर हँस विवेक से युक्त जन कल्याणकारी विचारों का संवहन करेंगीं ,तो जाने अनजाने बहुत सारी पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याओं का निवारण अपने आप ही होता रहेगा हमारी यह आशा फलित हो; ऐसी हमारी कामना और विश्वास है।

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