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आज की तकनीकी क्रान्ति के युग में, जहाँ हर भारतीय डिजिटल इंडिया के सपने देख रहा है,कम्प्यूटर पर सम्पूर्ण निर्भरता बढ़ती जा रही है। बच्चे –बच्चे के हाथों में लैपटॉप, टैबलेट आदि सुशोभित हो रहे हैं।सारी जानकारियाँ,विद्यालय महाविद्यालय से सम्बन्धित सारी पाठ्य सामग्री के लिए वह इन पर भरोसा करने का अभ्यस्त होता जा रहा है। यह स्थिति तात्कालिक समस्याओं के निवारणार्थ तो सही प्रतीत होती है पर इन बच्चों ,किशोरों और युवाओं के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के रास्ते नहीं खोलती।अचानक ही पुस्तकों ,पुस्तकालयों का महत्व इनके लिए नगण्य सा होता जा रहा है। यह कहना कि विद्यालयों में इन्हें पुस्तकालय की सुविधा नहीं मिलती, पुस्तकें पढ़ने को कहा नहीं जाता,एक अर्धसत्य है ,परन्तु अधिकाँश बच्चे अथवा विद्यार्थी इससे वंचित ही रहते हैं।.यह पूर्ण सत्य है।
हम सब जानते है कि एक युग था जब भारतवर्ष के विश्वविद्यालय विश्व प्रसिद्ध ज्ञानके केन्द्र थे।नालन्दा और तक्षशिला( अभी पाकिस्तान में) के अतिरिक्त भी विक्रमशिला ,ओदान्तपुरी और ऐसे कई विश्व विद्यालय थे। ये बड़ेबडे पुस्तकालयों से समृद्ध थे।मात्र एक नालन्दा विश्व विद्यालय,जो मुख्यतःबौद्ध धर्म का बहुत बड़ा केन्द्र था,पर जिसमें मात्र धार्मिक सिद्धान्तों और दर्शन ही नहीं ,तत्कालीन आवश्यकताऔं से सम्बन्धित सभी देशी विदेशी शास्त्रों का अध्ययन किया जाता था। हो सकता है ,यह बौद्ध धर्म की वरिष्ठता को सिद्ध करने के लिए भी किया जाता रहा हो, पर अध्ययन के लिए एक विशाल पुस्तकालय था,जिसमें व्याकरण ,तर्कशास्त्र,विधि, नगर योजना ,साहित्य गणित ज्योतिष,ज्योतिषशास्त्र,चिकित्साशास्त्र जैसे विषयोंसे सम्बन्धित विपुल साहित्य था।बाहर से जिज्ञासु विद्यार्थी कड़ी द्वार परीक्षा के बाद इस विश्वविद्यालय में प्रवेश कर इस अकूत ज्ञान भंडार का लाभ उठा सकते थे।कहते है भारतीय ज्ञान सम्पदा को सहन न कर पाने की स्थिति मे आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने जब संभवतः सन् 1911 में इसे ध्वस्त कर ईर्ष्यावश इसे जला दिया तो तीन महीनों सेअधिक समय तक यह जलता रहा। यह पुस्तकालय तीन सोपानों और नजाने कितने मंजिलों में था।
इन सबों का उल्लेख करने का प्रयोजन मात्र अपनी उस जिज्ञासु परम्परा का स्मरण करना है जो ज्ञान पिपासा कोतृप्त करने हेतु दूर दूर से आकर विद्यार्थी यहाँ के विद्वान गुरुओं एवम् इस विशाल पुस्तकालय की शरण में जाते थे ।हम ज्ञान देते थे जिन पुस्तकों के माध्यम से, स्वयम् भी उन्हीं से तृप्त होते थे। अगाध पिपासा थी औरअगाध ज्ञान के स्रोत थे ये पुस्तकालय।
ज्ञान जब गम्भीर होता है तो मन को भटकने से रोकता है,मन को केन्द्रित और शान्त करता है,मनोविकारों को दूर कर शुद्ध एवम् स्वस्थ करता है।इस ज्ञान को हम आज के वैज्ञानिक तकनीकी साधनों से उपलब्ध तो कर सकते हैं पर वह मननशीलता जो हाथ पर रखे कागज वा अन्य पत्रों पर लिखित शब्दों के माध्यम से प्राप्त होती है,बार बार पढ़ना, पढ़ने की आदत बना लेना ,अहर्निश उनकी चिन्तना करना,और मन-मस्तिष्क में उसे स्थायी बना लेना ,आदि,वह पुस्तकों और पुस्तकालयों के माध्यम से ही संभव है।कम्प्यूटर जैसे हर हाथ पहुँचे साधन ज्ञान की इस पिपासा को शान्त तो करते हैं पर इस मननशीलता और एकाग्रता में वृद्धि संभवतःउस हद तक नहीं कर सकते।
ज्ञान मात्र सूचनाओं का संग्रह नहीं,अपितु व्यक्तित्व- विकास का साधन है ।उन पुस्तकालयों में निहित पुस्तकें जिस ज्ञान का विकास करती थीं,वह मात्र सूचना अथवा दो गुने दो बराबर चार अथवा उसके गुणकों की दुनिया का हर क्षेत्र में रहस्य नहीं खोलते थे ,वरन् देश विदेश के उन अमूल्य साहित्य से परिचय कराते थे जो स्वस्थ समाज के आधार बनते थे।भारतवर्ष में स्थित होने पर भी नालन्दा बौद्ध विहार का यह पुस्तकालय मात्र हिन्दुओं के शास्त्र, बौद्धसाहित्यही नहीं बल्कि यूनानी तिब्बती ,मुस्लिम और नजाने कितनी जातियों के साहित्य का संरक्षण करता था तथा विद्यार्थियों को उनके अध्ययन की ओर प्रवृत्त करता था।ये थे हमारे नैतिक आदर्श, जिनका रक्षण पुस्तकालयों के माध्यम से होता था।
आज भी इन्ही संदर्भों में पुस्तकालयों की विशेषकर आवश्यकता है। आज हम युवाओं मे चरित्रहीनता का रोना रोते हैं,उनके मस्तिष्क में बिखराव का रोना रोते हैं,नशे के लत से लथपथ होने की शिकायत करते हैं ।कर्मठता एक क्षेत्र में तो दूसरे क्षेत्र में चरित्रहीनता प्रदर्शित होती है। समाज की इस गिरावट का मात्र एक कारण है कि हम सदग्रंथों से दूर होते जा रहे हैं।हमारे हिन्दू समाज को ही लीजिये,आज कितने घरों मेंबच्चों को रामायण, रामचरितमानस और गीता से परिचित कराया जाता है ?हाँ तत्सम्बन्धित नयी व्याख्याओं से युक्त कथा सामग्री और पटकथाओं की भरमार है,जिसे पढ़कर नयी मानसिकता का परिपोषण तो होता है ,पर मूल ग्रन्थों का चरित्र निर्माण सम्बन्धी सामाजिक प्रयोजन साधित नहीं होता। पब्लिक स्कूलों में इसे और भी नकार दिया जाता है।अब जब इन कथाओं की वास्तविकताओं पर भी ऊँगलियाँ उठने लगी हैं, आधुनिक बच्चो का इनपर से विश्वास और मोह समाप्त होता जा रहा है।पर ये वे सदग्रंथ हैं ,जिनमे सामाजिक चरित्रों के उन्नयित रूप के दर्शन कराने की चेष्टा की गयी है।हम कथा साहित्य को ही लें,चाहे वह भारतीय भाषाओं का हो या विदेशी भाषाओं का, उनमे चरित्रों का गठन होता है तुलनात्मक आध्ययन द्वारा मानव मन की गाँठों को खोलने की कोशिश होती है।हम पढ़ेंगे ही नहीं तो अपने अंदर के चरित्र को संस्कारित कैसे करेंगे।ज्ञान विज्ञान के अन्य क्षेत्रों की पुस्तकें तो फिर भी विद्यालयों महाविद्यालयों मे उपलब्ध हो सकती हैं छात्र उन्हें खँगाल सकते हैं,पर इतर पुस्तकों के लिए,विशेषकर उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए सार्वजनिक पुस्तकालयों ,वाचनालयों की हर जिला, शहर, ब्लॉक में होने की आवश्यकता है ।
ऐसा नहीं है कि इस देश में बीसवीं सदी में पुसतकालयों की स्थापना पर विचार नहीं किया गया ।प्रबुद्ध व्यक्तियों ने अपनी सामर्थ्य से पुस्तकालयों की श्रृंखला भी स्थापित कर दी।पंचवर्षीय योजनाओं में इसकी ओर ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा की गयी ।हर राज्य में केन्द्रीय पुस्तकालय,विश्वविद्यालय पुस्तकालय,विभागीय पुस्तकालय आदि भी खूब खोले गये ।लाइब्रेरी आफ बिहार रिसर्च सोसाइटी में राहुल सांस्कृत्यायन द्वारा तिब्बत से लाए गए वेद वेदांगो एवमअपहृत बौद्ध साहित्य सुरक्षित किया गया।और अन्य ऐसे ही कितने महत्वपूर्ण पुस्तकालयों की स्थापना की गयी।पर जिला स्तर केबाद नगर ,ब्लॉक गाँव स्तर तक पुसतकालयों का अस्तित्व भी अपेक्षितहै।इनतीन स्तरों पर पुस्तकालयों की अपेक्षा इसलिए है कि हर स्तर के छात्रों ,युवाओं और किशोरों की पहुँच उन तक हो सके।पंचायत स्तर पर भीएक पुस्तकालय और वाचनालय की आवश्यकता हैजिसमें सद्साहित्य ,बाल साहित्यऔर खेली बारी बागवानी आदि से सम्बद्ध साहित्य एवम् हर तरह की उपयोगी पत्र पत्रिकाएँ हों। विद्यालयों में कुछ समय पूर्व तक पुस्तकालय पर निबंध- लेखन एक विषय होता था,जिसमें चल, अचल पुस्तकालयों की चर्चा होती थी। अचल- पस्तकालयों का अस्तित्व तो है पर चल- पुस्तकालय खो गए से प्रतीत होते है। हो सकताहै ,उनका अस्तित्व वहाँ हो ,जहाँ उनकी आवश्यकता नहीं हो।
साहित्य पर विशेष बल देने का अभिप्राय भी विशेष है। साहित्य जीवन के उतार चढ़ावों जनित विभिन्न परिस्थितियों का चित्रण करता है।यह सामाजिक ,पारिवारिक व्यक्तिगत अथवा राष्ट्रीय भी हो सकता है।काव्य, कथा, उपन्यास, ,निबन्धादि साहित्य की सारी विधाएँ जीवन के वाह्य एवम् आभ्यंतर स्वरूप का दिग्दर्शन कराती हैं।साथ ही पाठक के मन पर उचितानुचित के निर्णय का भार भी छोड़ती हैं। साहित्यकार सतत् पाठकों को अपने साथ लेकर चलता हैऔर अपने चरित्र विश्लेषण में उसे सहभागी बनाता है।इस तरह पाठक जीवन की गहराइयों को समझने लगता है।सामाजिक जीवन के अनुपम कथाकार प्रेमचन्द ,प्रसाद, अश्क ,जैनेन्द्र ,इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय जैसे साहित्कारों ने सामाजिक और मनोवैज्ञानिक धरातल के सारे रहस्यों को खोलने की चेष्टा की।जिन परिस्थितियों के वे कथाकार थे,परिवर्तित रूप के साथ आज भी कमोवेश परिस्थितियाँ वही हैं।उस युग में नैतिकता के प्रति निर्मित आग्रह को देखते हुए ऐसा लगता है कि साहित्यकारों के आज के प्रयत्न भी युवकों किशोरों एवम बच्चों में नैतिकता एवम सामाजिक भावना का संचार कर सकते हैं।प्रश्न पुनः उन्हें पुस्तकों के सम्पर्क में लाने का है, उनमे साहित्य पढ़ने की आदत डालने की है।उच्च कोटि की रचनाएँ प्राप्त करने के लिए पुस्तकालय चाहिए।सभी इतने सुविधा सम्पन्न नहीं कि घर में पुस्तकालय बनाएँ या खरीदकर पुस्तकें पढ़ें।.ऐसी स्थिति में सार्वजनिक पुस्तकालयों की हर स्तर पर आवश्यकता है।
पुस्तकालय, वाचनालयों मे एकत्र लोगों के मध्य स्वस्थ चर्चा एवम विचार विमर्श के माहौल भी सामाजिक और नैतिक भावनाओं को स्फूर्त करते हैं।पढ़ने की आदत, खाली समय के सार्थक उपयोग के साथ चरित्र निर्माण का काम भी करती है,अतः पुस्तकों और पुस्तकालयों की इस हद तक आवश्यकताहै कि माँएँ अपने बच्चों को व्यर्थ के हुड़दंगों में समय व्यतीत करते देख उन्हें पुस्तकालय जाने को प्रेरित कर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकारी,गैरसरकारी संस्थाओं एवम सक्षम व्यक्तियों के सार्थक प्रयत्न की आवश्यकता है।
आशा सहाय 10 -7- 2016
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